Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थकर चरित्र भाग ३ ဖဝ၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀
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"गौतम ! तुम्हारा और मेरा सम्बन्ध बहुत पुराना है । पूर्वभवों में भी तुम्हारा और मेरा साथ रहा है । तुम्हारी मुझ पर प्रीति पूर्वभवों से चली आ रही है । तुम चिरकाल से मेरे प्रशसंक रहे हो । यह स्नेह-सम्बन्ध ही तुम्हारी वीतरागता एवं केवलज्ञान में बाधक हो रहा है। किंतु तुम इसी भव में केवलज्ञान प्राप्त करोगे और इस भव के बाद अपन दोनों एक समान (सिद्ध परमात्मा) हो जावेंगे । अतएव खेद मत करो।
यह भाव भगवती सूत्र शतक १४ उद्देशक ७ से लिया है । ग्रन्थकार तो लिखते हैं कि-खेद होते ही गौतमस्वामी को देव द्वारा कही हुई बात स्मरण हई। देव ने अरिहन्त भगवान से सुन कर कहा था कि"जो मनुष्य अपनी लब्धि से अष्टापद पर्वत पर चढ़ कर वहाँ की जिन-प्रतिमाओं की वन्दना करे और वहीं रात्रि-निवास करे, वह उसी भव में सिद्ध होता है।" श्री गौतम स्वामीजी भगवान् की आज्ञा से चारणलब्धि का प्रयोग कर तत्काल अष्टापद गये । वहाँ पन्द्रह सौ तापस भी पर्वत चढ़ने के लिए प्रयत्नशील थे। उनमें से पांच सौ तापस उपवास कर के हरे कन्द से पारणा करते हए चढ़ने लगे, परन्तु वे पर्वत की प्रथम
ा तक ही पहुँच सके । अन्य पाँच सौ तापस बेले की तपस्याओं और सखे हए कन्द से पारणा करते हुए दूसरी मेखला तक ही पहुँच सके थे। शेष पाँच सौ तेले-तेले तपस्या करते हुए सूखी हुई शैवाल (काई) से पारणा करते थे। वे तीसरी मेखला तक पहुँच कर रुक गये। आगे बढ़ने की उनमें शक्ति ही नहीं थी। गौतमस्वामी का भव्य शरीर देख कर वे चकित रह गये। उनकी देह से सौम्य तेज झलक रहा था । वे अष्टापद पर्वत पर चढ़ गए (सूर्य की किरणें पकड़ कर चढ़ने का उल्लेख इस ग्रन्थ में नहीं हैं) उन्होंने भरत चक्रवर्ती के बनाये भव्य मन्दिर में प्रवेश किया और आगामी चौबीसी के चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाओं की वन्दना की। फिर मन्दिर के बाहर निकल कर एक वृक्ष के नीचे बैठ गये। वहा अनेक देव और विद्याधर आये और गणधर भगवान् की वन्दना की। धर्मोपदेश सुना। प्रातःकाल गौतम-गुरु पर्वत से नीचे उतरे । जब गौतम-गुरु पर्वत पर चढ़ गए तो उन तापसों को विचार हुआ कि--'सरलता पूर्वक पर चढ़ने वाला कोई सामान्य पुरुष नहीं हो सकता। ये महापुरुष हैं। अपन इका शिष्यत्व स्वीकार कर लें। इनसे हमें लाभ ही होगा।' जब गौतम-गुरु नीचे उतरने लगे, तो तापस उनके निकट आये और दीक्षा देने की प्रार्थना की। गौतम-गुरु ने उन्हें दीक्षा दी और कहा--"श्रमण भगवान महावीर प्रभु ही तुम्हारे गरु है।" देव ने उन्हें साधुवेश दिया। वे सब गौतम-गरु के पीछे चलने लगे। मार्ग में एक गाँव से गौतम स्वामीजी गोचरी में एक पात्र में खीर लाये और उस एक मनुष्य के योग्य खीर मे अक्षिणमाणसी लब्धि से पन्द्रह सो तपस्वियों को पारणा कराया । अन्त में गौतम-गरु ने पारणा किया तब वह खीर समाप्त हुई। तपस्वी अवाक रह गए । एक मनुष्य जितनी खीर से पन्द्रह सौ को भोजन ? हम भाग्यशाली हैं।" दाभ ध्यान करते शुष्क-शंवालभक्षी पाँच सौ साधुओं को केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। दत्त आदि पाँच सो को दूर से ध्वजा-पताका देख कर और कौडिन्य आदि पाँच सो को प्रभु का दर्शन होते ही केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। गौतम-गुरु ने भगवान को वन्दना की,किन्तु पन्द्रह सौ तो प्रदक्षिणा कर के केवली-परिषद की ओर जान लो तो गौतम-गुरु ने उन्हें भगवान् की वन्दना करने का कहा। भगवान ने कहा--'केवली की
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