Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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संगमक का जीव
हुआ । भद्रा ने स्वप्न
राजगृह नगर में 'गोभद्र' सेठ की 'भद्रा' भार्या के गर्भ में उत्पन्न पका हुआ शालि क्षेत्र देखा । उसने अपने पति को स्वप्न सुनाया । पति ने कहा - " तुम्हारे एक भाग्यशाली पुत्र होगा ।" भद्रा को "दान करने " का दोहद हुआ । गोभद्र सेठ ने उसका दोहद पूर्ण किया । गर्भकाल पूर्ण होने पर एक सुन्दर पुत्र का जन्म हुआ । स्वप्न के अनुसार माता-पिता ने पुत्र का नाम " शालिभद्र रखा । उसका पालन पोषण राजसी ढंग से हुआ । उसे योग्य वय में विद्याकला में निपुण बनाया और अपने समान समृद्धिशाली श्रेष्ठियों की बत्तीस सुन्दर सुशील कन्याओं के साथ लग्न कर दिये । शालिभद्र अपनी बत्तीस प्रियतमाओं के साथ भव्य भवन में उत्तम भोग भोगता हुआ अपने पुण्य फल का रसास्वादन कर रहा था । वह रागरंग में इतना लीन हो गया कि उसे उदय अस्त और दिन-रात का भान ही नहीं रहता था । भगवान् महावीर प्रभु का उपदेश सुन कर गोभद्र सेठ विरक्त हुए और भगवान् के पास दीक्षित हो कर तप सयम का पालन कर स्वर्गवासी हुए । व्यापार-व्यवसाय भद्रा माता ही देखने लगी । शालिभद्र को इस ओर देखने की आवश्यकता ही नहीं रही । गोभद्र देव ने अवधिज्ञान से अपने पुत्र को देखा । पुत्र- वात्सल्य एवं पूर्व पुण्य से आकर्षित हो कर देव अपने पुत्र और पुत्र-वधुओं के लिए प्रतिदिन दिव्य वस्त्रालंकार भेजने लगा । शालिभद्र के लिये तो इस मनुष्यभव में केवल भोग भोगने का ही कार्य हो, ऐसी उसकी परिणति हो रही थी ।
राजगृह में देशान्तरवासी व्यापारी रत्न- कम्बल ले कर आये और महाराजा श्रेणिक को दिखाई। रत्न- कम्बल का मूल्य बहुत अधिक था, इसलिए राजा एक भी नहीं ले सका । व्यापारी निराश लौटे और सम्पत्तिशाली सेठों के यहाँ घमते- निष्फल लौटतेभद्रा माता के पास पहुँचे । भद्रा ने उन व्यापारियों की सभी कम्बले मुँह माँगा धन दे कर क्रय कर लो । रत्न-कम्बलें कम थी, ३२ पुत्र वधुओं के लिए पर्याप्त नहीं थी । इसलिये उनके टुकड़े कर के पाँव पोंछने के लिए पुत्र वधुओं को दे दिये। उधर महारानी चिल्लना ने रत्न कम्बल आने और व्यापारियों को खाली हाथ लौटा ने की बात सुन कर महाराजा से एक कम्बल लेने का कहा । महाराजा ने व्यापारियों को बुला कर एक कम्बल माँगा । व्यापारियों से यह जान कर कि सारे कम्बल भद्रा ने ले लिये, श्रेणिक ने अपने एक विश्वस्त सेवक को मूल्य दे कर भद्रा सेठानी के यहाँ रत्न- कम्बल लेने भेजा ।' सेवक को भद्रा ने कहा- " सभी कम्बलों के टुकड़े कर के पुत्र-वधुओं को पाँव पोंछने के लिए दे दिये गये हैं यदि टुकड़े लेना हो तो देदूँ ।" महारानी निराश हुई और राजा से बोल - आप में और उस वणिक में कितना अन्तर है ?"
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तीर्थंकर चरित्र - भाग ३ FF FF FF
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