Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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गोशालक की गति और विनाश +aparकककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककapp.
बाँधी । तीन बार मुंह में थूका और उस चित्रांकित नगरी पर घसीटते हुए मन्द स्वर में बोले--“गोशालक जिन नहीं था, वह मंखली का पुत्र था। श्रमणघातक और गुरुद्रोही था। भगवान् महावीर ही जिनेश्वर हैं।" इस प्रकार कह कर शपथ से मुक्त हुए । इसके बाद पाँव की रस्सी खोली, द्वार खोला, गोशालक के शरीर को सुगन्धित जल से स्नान कराया और महा आडम्बर युक्त सम्मान के साथ निष्क्रमण किया।
गोशालक की गति और विनाश श्री गौतमस्वामी के पूछने पर भगवान् ने कहा--गोशालक की मति सुधरी । वह सम्यक्त्व युक्त मृत्यु पा कर अच्युत नामक बारहवें स्वर्ग में गया। वहाँ उसकी आयु बाईस सागरोपम प्रमाण है । देवायु पूण कर वह इसी जम्बूद्वीप के भरत-क्षेत्र में शतद्वार नगर में राजकुमार होगा। उसका नाम 'महापद्म' होगा। राज्याधिकार प्राप्त कर वह महा. राजा बनेगा । सम्यक्त्व के प्रभाव से दो महद्धिक यक्ष--माणिभद्र और पूर्णभद्र उसकी सेवा करेंगे । पूर्व भव का वैरविपाक उसे श्रमणों का शत्रु बना देगा । वह श्रमणों को बहुत सतावेगा। उन्हें दण्डित करेगा। इस अनार्यपन से दुःखी हो कर अन्य राजा, युवराज, श्रेष्ठि एवं साथवाह आदि उसे अनार्यपन छोड़ने के लिए समझावेंगे, तब वह धर्म में अश्रद्धा रखता हुआ भी उनका आग्रह स्वीकार करेगा। परन्तु उसके मन से श्रमणों के प्रति जमा हुआ द्वष तो वैसा ही रहेगा।
शतद्वार नगर के बाहर एक रमणीय उद्यान होगा । उस समय के 'विमलवाहन' नामक तीर्थंकर भगवंत के प्रपौत्र-शिष्य 'सुमंगल' अनगार होंगे । वे महात्मा विपुल तेजोलेश्या के धारक, तीन ज्ञान के धनी, उस उद्यान के निकट बेले, के तप सहित आतापना लेते हुए ध्यान-मग्न होंगे। विमलवाहन नरेश रथारूढ़ होकर उस ओर से निकलेंगे। सुमंगल अनगार को देखते ही राजा क्रोधान्ध हो जायगा और रथ की टक्कर मार कर महात्मा को गिरा देगा। महात्मा भूमि से उठ कर पुनः ध्यान मग्न हो जाएँगे । राजा मुनिराज को फिर गिरा देगा। मुनिराज फिर उठेंगे और अपने अवधिज्ञान का उपयोग लगा कर राजा के भूतकालीन जीवन को देखेंगे और कहेंगे--
"तू न तो राजा है और न राज्याधिपति है । इस भव के पूर्वभव में तू श्रमणों की घात करने वाला गुरुद्रोही गोशालक था । तू ने श्रमणों की घात की थी। सर्वानुभूति अनगार स्वयं समर्थ थे । वे चाहते, तो तुझे नष्ट कर सकते थे। परन्तु वे अपने धर्म में दृढ़
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