Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रसन्नचन्द्र राजर्षि चरित्र
उसकी भावना पलटी, मेरे प्रति उभरा हुआ प्रेम भी नष्ट हो गया और वह दीक्षा त्याग कर चला गया । इसका क्या कारण हैं ?"
" हे गौतम ! मैंने त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में जिस सिंह को मारा था, उसी सिंह का जीव यह हालिक है । उस भव में तुम मेरे सारथि थे । तुमने सिंह को मधुर वचनों से अश्वान दिया था। उस समय यह मेरा द्वेषी और तुम्हारा स्नेही बन गया था । तुम्हारे प्रति उसका स्नेह होने के कारण ही मैने तुम्हें उसे प्रतिबोध देने भेजा था ।"
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यद्यपि हालिक उस समय पतित हो गया था । किन्तु उसे एक महालाभ तो हो ही गया था । उसकी आत्मा ने सम्यग्ज्ञान-दर्शन और चारित्र का स्पर्श कर लिया था । उसकी आत्मा से अनादि मिथ्यात्व छूट गया था । उसके सम्यग्दर्शन के संस्कार, फिर कभी उसके सादि मिथ्यात्व को उखाड़ कर पुनः सम्यग्दर्शन प्रकट करेगा और वह मुक्त भी हो जायगा ।
प्रसन्नचन्द्र राजर्षि चरित्र
भगवान् ग्रामानुग्राम विचरते हुए पोतनपुर पधारे और मनोरम नामक उद्यान में त्रिराजं । प्रपन्नचन्द्र महाराज भगवान् की वन्दना करने पधारे । भगवान् की मोहोपशमनी | देशना सुन कर नरेश संसार से विरक्त हुए और अपने बाल कुमार का राज्याभिषेक करके वे निर्बंय श्रमण बागए । तप-संयम का निष्ठापूर्वक पालन करते और श्रुताभ्यास करते हुए कालान्तर में वे राजगृह पधारे। महाराज श्रेणिक अपने पुत्र-पौत्रादि और चतुरंगिनी सेना सहित भगवान् को वन्दन करने के लिए नगरी के मध्य में होते हुए उद्यान की ओर जा रहे थे । उनकी सेना में 'सुमुख' और 'दुर्मुख' नाम के दो संन्याधिकारी आपस में बातें करते हुए जा रहे थे। उन्होंने राज प्रसन्नचन्द्रजी को एक पाँव ऊँचा किये, दोनों हाथ ऊपर उठाये ध्यान करते हुए देखा । उन्हें देख कर सुमुख बोला--" ये महात्मा उग्र तपस्वी हैं । इनके लिये स्वर्ग और मोक्ष पाना सर्वथा सरल है ।" साथी की बात सुन कर दुर्मुख बोला ;
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यह
महाराज्य का भार लाद कर साधु
तो पोतनपुर का राजा प्रसन्नचन्द्र है । यह छोटे बछड़े को भार से सम्पूर्ण भरे हुए गाड़े में जोतने के समान अपने बालक पुत्र पर बन गया । इसने यह नहीं सोचा कि यह बालक एक सकेगा । अब इसके मन्त्री चम्पानगरी के दधिवाहन राजा से मिल कर बालक को राज्य
विशाल राज्य को कैसे सम्भाल
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