Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आदर्श श्रावक आनन्द
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आत्मोद्धार का मार्ग पा गया था। वह अपने को धन्य मानता हुआ और इस महालाभ से पत्नी को भी लाभान्वित करने का विचार करता हुआ घर पहुँचा और सोधा पत्नी के समीप पहुँच कर बोला;--
__ "प्रिये ! आज का दिन हमारे लिये परम कल्याणकारी है । आज जैसा महालाभ मुझे कभी नहीं मिला । हमारे नगर में त्रिलोकपूज्य, जगदुद्धारक जिनेश्वर भगवत महावीर स्वामी पधारे हैं । मैं उन तीर्थंकर भगवान् को वन्दन करने गया था। उनके धर्मोपदेश ने मेरी आँखें खोल दी। मैं भगवान् का उपासक हो गया और मैने भगवान् से श्रमणोपासक के योग्य व्रत धारण किये हैं । जाओ, प्रिये ! तुम भी शीघ्र दूति पलास उद्यान में जा कर भगवान् की वन्दना करो और भगवान् की उपासिका बन जाओ। आज हमारे जीवन का महा परिवर्तन है। मानव-जन्म सफल करने की शुभ वेला है । जाओ, इम महालाभ को पा कर तुम भी धन्य बन जाओ।"
शिवानन्दा पति के पावन वचन सुन कर अत्यन्त प्रसन्न हुई । वह रथारूढ़ हो कर दासियों के साथ भगवान् के समवसरण में पहुँची और भगवान् का धर्मोपदेश सुन कर वह भी श्रमणोपासिका बन गई।
__ जीब-अजीवादि तत्त्वों के ज्ञाता श्रमणोपासक आनन्द को अपने व्रतों का पालन करते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो कर पन्द्रहवाँ वर्ष चल रहा था। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र को गृहमार सोंपा और कोल्लाक सन्निवेश की ज्ञातकुल की पौषधशाला में पहुँचा। वहाँ तप पूर्वक उपासक की ग्यारह प्रतिमा की आराधना करने लगा। ग्यारह प्रतिमाओ की आराधना में साढ़े पाँच वर्ष लगे । आनन्द का शरीर तपस्या के कारण अत्यधिक शुष्क दुर्बल और अशक्त हो गया। उसकी हड्डियाँ और नसें दिखाई देने लगी। उससे उठना-बैठना कठिन हो गया।
एक रात धर्मचिन्तन करते हुए उसने सोचा--'मैं अत्यन्त दुर्बल हो गया हूँ, फिर भी मुझ में कुछ गक्ति अवशेष है और जब तक मेरे धर्मगुरु धर्माचार्य भगवान् महावर प्रभु गंध-हस्ति के ममान इस आर्यभूमि पर विचर रहे हैं तब तक मैं अपनी अन्तिम साधना भी कर लूं । उसने अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना की और आहारादि खारे पं ने का सर्वथा त्याग कर, मृत्यु प्राप्त होने की इच्छा नहीं रखता हुआ, शुभ भावों में रण करने लगा। शुभ भाव, प्रशस्त परिणाम एवं लेश्या की विशुद्ध से तदावरणीय कर्म के क्षयोपगम से उसे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ। इस ज्ञान से वह पूर्व, पश्चिम और दक्षिणदिशा में लवणम पुद्र में पांच पांच सौ योजन तक और उत्तर में चुल्लहिमवंत पर्वत तक
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