Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र--भा.३
.................................... "देवानुप्रिय ! आपका कथन सत्य है । श्रमण भगवान् महावीर प्रभु ऐसे ही हैं, वरन् इससे भी अधिक हैं। और आप समयज्ञ हैं, चतुर हैं, निपुण हैं और अवसर के अनुसार कार्य करने वाले हैं । परन्तु क्या आप श्रमण-भगवान् महावीर स्वामी से धर्मवाद करने के लिए तत्पर हैं ?"
--"नहीं, मैं भगवान् से वाद नहीं कर सकता"-गोशालक ने अपनी अशक्ति बतला दी।
"आप भगवान् से धर्मवाद क्यों नहीं कर सकते ?"
"जिस प्रकार एक महाबलवान् दृढ़ शरीरी नीरोग एवं हृष्टपुष्ट मल्ल युवक किसी बकरे, मेढ़े, मुर्गे, तीतर आदि की टांग, गला आदि पकड़ कर निस्तेज, निष्पन्दित और निश्चेष्ट कर देता है, दबोच लेता है, उसे हिलने भी नहीं देता । उसी प्रकार श्रमण-भगवान् महावीर स्वामी अनेक प्रकार के हेतु दृष्टांत व्याकरण और अर्थों से मेरे प्रश्नों को खण्डिन कर मुझे निरुत्तर कर देते हैं । इसलिए हे सद्दालपुत्र ! मैं श्रमण भगवान महावीर स्वामी से वाद करने में समर्थ नहीं हूँ।"
गोशालक की बात सुन कर सद्दालपुत्र श्रमणोपासक ने कहा--
"आपने मेरे धर्मगुरु धर्माचार्य श्रमण-भगवान् महावीर स्वामी के सत्य-तथ्य पूर्ण एवं यथार्थ गुणों का कीर्तन किया है। इसलिये मैं आपको पाडिहारिक पीठफलकादि ग्रहण करने का निमन्त्रण देता हूँ। किन्तु यह स्मरण रखिए कि में जो पीठ फलका दि दे रहा हूँ, वह धम या तर समझ कर नहीं दे रहा हूँ। आप जाइए और मेरी कुम्भकारापण जा कर पीठादि ले लीजिये।"
गोशालक चला गया। वह सद्दालपुत्र के कुम्भकारापण में रह कर उससे सम्पर्क करता रहा और अनेक प्रकार से समझा-बुझा कर अपने मत में लौटाने की चेष्टा करता रहा, परन्तु वह सफल नहीं हो सका । अंत में निराश हो कर चला गया। सद्दालपुत्र प्रभावशाली उपासक के निकल जाने से गोशालक-मत को विशेष क्षति पहुँचो ।
सद्दालपुत्र चौदह वर्ष से कुछ अधिक काल तक गृहस्थ सम्बन्धी कार्यों में संलग्न रहते हुए श्रावक-व्रतों का पालन करता रहा । इसके बाद वह पौषधशाला में गया और प्रतिमा का पालन करने लगा। कभी रात्रि में उसके समक्ष भी एक देव उपस्थित हुआ। उसने सद्दालपुत्र श्रमणोपासक को विचलित करने के लिए चुल्ल नीपिता श्रावक के समान उसके पुत्रों को मार कर रक्तमांस से देह सिंचने का उपसर्ग दिया। इसके बाद जब देव उसकी 'धर्म महाधिका,' 'धर्म-रक्षिका,' 'सुखदुःख की साथिन' अग्निमित्रा पत्नी को
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