Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
देव पराजित हुआ
३०४
-.
-.
-.
-.
-.
.
-.
.
.
-.
-.
0.
0.
.6
-.
-.
-.
.
..
.
..
..
-.
-.
.
-.
-.
-..
देव पराजित हुआ
महावीर-भक्त महाश्र वक कामदेवजी की धर्म-दढ़ता के आगे देव को हारना पड़ा। देव लज्जित हो कर पाछे हटा। उसने सपं रूप त्याग कर देव रूप धारण किया और कामदेवजी के समक्ष आया। अंतरिक्ष को अपनी दिव्य-प्रभा से आलोकित करता हुआ पृथ्वी से कुछ ऊपर रह कर देव कहने लगा;---
"हे कामदेव ! तुम धन्य हो, तुम कृतार्थ हो, तुम्हारा मानव-भव सफल हुआ । तुम्हें निग्रन्थ-प्रवचन पूर्णतः प्राप्त हुआ है । प्रथम स्वर्ग क देवेन्द्र देवराज शक ने तुम्हारी धर्म दृढ़ता की देवसभा में, हजारों देवों के समक्ष मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते हुए कहा कि
“इस समय भरतक्षेत्र की चम्पा नगरी का कामदेव श्रमणोपासक पौषधशाला में रह कर प्रतिमा का आराधना कर रहा है और संथारे पर बैठ कर धर्म-चितन कर रहा है। उसमें धर्म-दृढ़ता इतनी ठोस है कि कोई देव-दानव भी उसे अपने धर्म एवं साधना से किञ्चित् भी चलित नहीं कर सकता।"
देवेन्द्र की इस बात पर मैने विश्वास नहीं किया और मैं तुम्हें डिगाने के लिए यहाँ आ कर महान् कष्ट दिया । किन्तु तुम्हारी धर्म-दृढ़ता के आगे मुझे पराजित होना पड़ा । धन्य है आपकी दृढ़ता और धन्य है आपकी उत्कट साधना । मैं अपने अपराध की आपसे क्षमा चाहता हूँ और प्रतिज्ञा करता हूँ कि भविष्य में आपके अथवा किसी भी धर्मसाधक के साथ ऐसा कर व्यवहार नहीं करूंगा।"
देव अन्तर्धान हो गया । कामदेवजी ने उपसर्ग टला जान कर ध्यान पाला। उस समय श्रमण भगवान महावीर प्रभु चम्पा नगरी के बाहर पूर्णभद्र उद्यान में पधारे । कामदेव को भगवान के पधारने का शुभ संवाद पौषधशाला में मिला । वे हर्षित हुए। उन्होंने विचार किया कि अब भगवान् को वन्दन करने के बाद ही पौषध पालना उत्तम होगा। उन्होंने वस्त्राभूषण पहिने और स्वजन-परिजनों के साथ घर से निकल कर पूर्णभद्र उद्यान में भगवान् की वन्दना की और पर्युपासना करने लगे । भगवान् ने धर्मोपदेश दिया और तदनन्तर कामदेव से पूछा ;--
"हे कामदेव ! गत मध्य रात्रि के समय एक देव ने तुम पर पिशाच, हस्ति और सर्प का रूप बना कर घोर उपसर्ग किया था ?"
"हां, भगवान् ! आपका फरमाना सत्य है।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org