Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र भाग ३
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जानने-देखने लगा । ऊर्ध्व में सोधर्मकल तक और अधो-दिशा में रत्नप्रभा पृथ्वी के लोलुपाच्युत नरकावास तक देखने लगा।
उस समय भगवान महावीर प्रधु वाणिज्य ग्राम-नगर पधारे और दूतिपलास चैत्य में बिराजे । भगवान् के प्रथम गणधर श्री इन्द्र भतिजी ने अपने बेले की तपस्या के पारण लिए भगवान् की आज्ञा ले कर वाणिज्य ग्राम में प्रवेश किया और आहार ले कर लौटते हुए कोल्लाक सन्निवेश के समीप लोगों को परस्पर बात करते हुए सुना कि--
"देवानुप्रिय ! भगवान महावीर का अतेवासी आनन्द श्रमणोपासक, पषधशाला से संथारा कर के धर्मध्यान में रत हो रहा है ।"
श्री गौतम स्वामी ने ये शब्द सुने, तो उनके मन में आनन्द को देखने की भावना हुई । वे पौषधशाला में आनन्द के निकट आये । गौतम स्वामी को देखते ही आनन्द हर्षित हुआ। लेटे-लेटे ही उन्होंने गौतम स्वामी की वन्दना की, नमस्कार किया और बोला--
"भगवान् ! बड़ी कृपा की--मुझे दर्शन दे कर । अब कृपया निकट पधारने का कष्ट कीजिये, जिससे मैं श्री चरणों की वन्दना कर लूं। मुझ में इतनी शक्ति नहीं कि जिससे स्वतः उठ कर चरण वन्दना कर सकूँ।"
आनन्द की प्रार्थना पर भगवान् गौतम उसके निकट गये। आनन्द ने भगवान् गौतम को तीन बार वन्दना कर के नमस्कार किया । नमस्कार करने के पश्चात् आनन्द ने भगवान् गौतम से पूछा;--
"भगवन् ! गृहवास में रहने वाले मनुष्य को अवधिज्ञान हो सकता है ?" "हाँ, आनन्द ! हो सकता है।"
"भगवन् ! मुझे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है । मै लवणसमुद्र में पूर्व में पाँच सौ योजन तक यावत् नीचे लोलुप्याचुत नरकावास तक जान-देख सकता हूँ।" .
__ "आनन्द ! गृहस्थ को अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है, परन्तु इतना विस्तिर्ण नहीं होता। इसलिए तुम्हें असत्य वचन का आलोचना कर के तपाचरण से शुद्धि करनी चाहिए।"
गौतम स्वामी की बात सुन कर आनन्द बोले ;--
"भगवन् ! जिन-प्रवचन में सत्य, तथ्य, उचित एवं सद्भुत कथन के लिये भी आलोचना एवं प्रायश्चित्त रूप तप किया जाता है क्या ?"
___ नहीं आनन्द ! सत्य एवं सद्भूत कथन को आलोचना प्रायश्चित्त नहीं होता"-- श्री गौतम भगवान् ने कहा ।
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