Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र - भाग ३
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क्योंकि ये दोनों मत वेद-बाह्य है और तुम्हारा आर्हत् मत भी वेद-बाह्य है । इसलिए तुम इस मत का त्याग कर दो। तुम क्षत्रीय हो । तुम्हारे लिए ब्राह्मण पूज्य है । यज्ञ-यागादि तुम्हारा कर्त्तव्य है | हम तुम्हें तुम्हारा वेद-विहितधर्म बताते हैं । जो दो हजार स्नातकों को प्रतिदिन भोजन कराता है, वह महान् पुण्य का उपार्जन कर स्वर्गवासी देव होता है ।" आर्द्र मुनि उत्तर देते हैं-" आपका मन्तव्य भी असत्य है । जो भोजन की लालसा से मार्जार के समान ताकते हुए घर घर घूमते हैं, ऐसे दो हजार स्नातकों को भोजन कराता है, वह नरक में जाता है। जो परमोत्तम ऐसे दयाधर्म से घृणा करते हैं और हिंसाधर्म की प्रशंसा करते हैं, ऐसे एक भी दुःशील को सत्पात्र समझ कर भोजन कराता है, वह तो अन्धकार में है और अन्धकार में जाता है। उसके लिए स्वर्ग के दैविक सुख कहाँ है ?"
एकदण्डी से चर्चा
आगे बढ़ने पर मुनिराज श्री एकदण्डी से मिले । उन्होंने कहा- " मुनिराज ! आपने दुराचारी लोगों का खण्डन किया, यह अच्छा किया। संसार में आपका और हमारा, ये दो धम ही उत्तम हैं । आपके और हमारे धर्म में समानता बहुत है और भंद तो बहुत थोड़ा है । हम आचारवत मनुष्य को ही ज्ञानी मानते हैं। अहिंसा, सत्य आदि धर्म को हम भी स्वीकार करते हैं । संसार-प्रवाह के सम्बन्ध में भी आपकी और हमारी मान्यता समान है । किन्तु हमारे मत का यह विशेषता है कि हम पुरुष ( आत्मा ) को अबत सर्वव्यापी सनातन - अक्षय और अव्यय मानते हैं । वह सभी भूतों में पूर्णतः व्याप्त है ।'
श्री आर्द्रकमुनि उत्तर देते हुए कहते हैं-
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आपका सिद्धांत भी निर्दोष नहीं है । आप एक आत्मा को ही सर्वव्याप्त मानते
हैं, तो फिर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र तथा कीट, पक्षी, सरीसृप, मनुष्य और देव जैसे भेद ही नहीं रह सकते और न सुख-दुःख और संसार परिभ्रमण ही घटित हो सकता है।" 'केवलज्ञान से लोक का स्वरूप जाने बिना ही जो अज्ञान अवस्था में धर्म-प्रवत्तन करते हैं, वे अपने-आप के और दूसरों के हित को नष्ट कर के घोर संसार में रुलते हैं । और जो समाधिवंत महात्मा केवल ज्ञान से लोक के स्वरूप को जान कर धर्मोपदेश देने हैं, वे स्वयं भी संसार से तिर जाते हैं और दूसरों को भी तिराते हैं । अतएव ज्ञानी और अज्ञानी, बुरे आचरण और शुद्धाचरण में समानता तो अज्ञानी ही बतला सकते हैं, ज्ञानी नहीं । अतएव आप में और हम में समानता कैसा ? '
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