Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तथंकर चरित्र-भाग ३ ပုံနန်းနန်းနန်းနီနီ
နန်းနန်
गुटिकाएं खा लूं, जिससे इत्त स लक्षण वाला एक ही पुत्र हो जाय ।" इस प्रकार सोच कर वह सभी गुटिकाएँ एकसाथ निगल गई। भवितव्यता के अनुसार ही बुद्धि उत्पन्न हातो है । उसके गर्भ में बत्तीस जीव उत्पन्न हुए। उनको महन करना दुःखद हो गया । उसने कायोत्सर्ग कर के उस देव का स्मरण किया। स्मरण करते ही देव आया । मूलपा का पड़ जान कर उसने कहा--"भद्रे ! तुझे ऐसा नहीं करना था । अब तू निश्चित रह । तेरा पीड़ा दूर हो जायगी और तेरे बत्तास पुत्र एक साथ होंगे।" देव ने उसे 'गूढगर्भा' कर दिया। गर्भकाल पूर्ण ह ने पर सुलसा ने शुभ-दिन शुभमुहूर्त में बत्तीस लक्षण वाले बत्तोस पुत्रों को जन्म दिया। ये बत्तीस कुमार, यौवन-वय प्राप्त होने पर महाराजा श्रेणिक के अंग-रक्षक बने । ये ही अंग-रक्षक श्रेणिक के साथ वैशाली गये और चिल्लना-हरण के समय श्रेणिक की रक्षा करते हुए मारे गये । श्रेणिक को अपने सभी अंग-रक्षक मारे जाने से खेद हुआ। वह स्वयं और महामात्य अभयकुमार यह महान् आघात-जनक सम्वाद सुनाने नाग र थिक के घर गए । अपने सभी पुत्रों के एकसाथ मारे जाने का दुर्वाद उस दम्पति के लिए अत्यंत शोक जनक हुआ। वे हृदयफाट रुदन करने लगे। उनकी करुणाजनक दशा दर्शकों को भी रुला देती थी। अभयकुमार ने उन्हें तात्त्विक उपदेश दे कर शान्त किया। राजा और महामात्य ने उन्हें उचित वचनों से आश्वासन दिया और लौट गए।
चिल्लना को पति का मांस खाने का दोहद
नव-परणिता रानी चिल्लना के साथ श्रेणिक भोग में आसक्त हो कर निमग्न रहने लगा । कालान्तर में चिल्लना के गर्भ रह गया। श्रेणिक के पूर्वभव में जिस औष्ट्रिक तापस ने वैरभाव से निदान कर के अनशन कर लिया था और मर कर व्यंतर हुआ था, वही चिल्लना के गर्भ में आया। कुछ कालोपरान्त चिल्लना के मन में पति के कलेजे का मांस खाने का दोहद उत्पन्न हुआ । गर्भ के प्रभाव से इस प्रकार की इच्छा हुई थी। उसके मन में हुआ--'धन्य है वह स्त्री जो महाराजा के कलेजे का मांस तल-भुन कर खाती है और मदिगपान करती है। उसका ही जीवन सफल है।' चिल्लना की ऐसी उत्कट इच्छा तो हुई परन्तु इस इच्छा का पूरा होना असंभव ही नहीं, अशक्य लगा। वह अपनी इच्छा किमी के सामने प्रकट भी नहीं कर सकती थी। वह मन-ही-मन घुलने लगी। चिन्ता रूपी प्रच्छन्न अग्न में जलते छीजते वह दुर्बल निस्तेज एवम् शुष्क हो गई । उसका मुखचन्द्र
+ पृष्ठ २३५ । निरयावलियासूत्रानुसार ।
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