Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
आर्द्रकुमार का पूर्वभव
२७९ a pasprpapornops
कचकद
- 4tarivaharitriptip
आद्रकुमार का पूर्व भव
आद्र कुमार ने जातिस्मरण ज्ञान से देखा कि में पूर्व के तीसरे भव में 'सामयिक' नामक गृहपति था । बन्धुमती मेरो भार्या थो । मुस्थित आचार्य से धर्मोपदेश गुन कर पतिपत्नी दक्षित हो गए । गुरु के साथ ग्रामान ग्राम विचरते हुए, में एक नगर में आया । बन्धमती-साध्वी भी अपनी गुरुणो के साथ उस समय उसी नगर में आई। उसे देख कर मुझे माह इत्पन्न हुआ। गृहस्थ बास में उसके साथ भोगे हुए भोग की स्मृति एवं चिंतन ने मुझे विचलित कर दिया। मैं साधियों के उपाश्रय पहुँचा। गुरुणी से बन्धुमती से मिलने की इच्छा प्रशित की । गुरुणो मेरे मनोभाव समझ गई। उन्होंने बन्धुमती से कहा । बन्धुमती ने खदपूर्वक कहा-"ऐसे गीतार्थ साधु भी मोहवश होकर मर्यादा नष्ट करने पर तुल गये हैं और अपने उज्जवल भविष्य को बिगाड़ रहे हैं । यदि मैं उसके समक्ष गई, तो अनर्थ हो सकता है। मुझे उनका और अपना जीवन सफल करना है । यदि मैं अन्यत्र चली ज ती हूँ, तो कदाचित् ये मेरा पीछा करेंगे। इसलिए मैं अब अनशन करके देह त्यागने के लिए तत्पर हूँ।"
सती बन्धुमती ने तत्काल अनशन कर लिया और श्वांस रोक कर प्राण त्याग दिये। वह देवलोग में उत्पन्न हुई । जब मुझे ज्ञात हुभा कि सती बन्धुमती ने ब्रह्मचर्य रक्षा के लिए प्राण त्याग दिये, तो मुझे भी विचार हुआ कि--'मैं कितना पतित हूँ। मैने अपना साधुव्रत भंग कर दिया, फिर भी जीवित हूँ। अब मुझे भी मर जाना चाहिए ।' मैने भी अनशन कर के मृत्यु प्राप्त की और देवलोक में उत्पन्न हुआ। देवल क से च्यव कर मैं इस अनार्य-क्षत्र में उत्पन्न हुआ हूँ । अभय कुमार ने मुझे अपने पूर्वभव में पाले हुए संयम की स्मृति जाग्रत करने के लिए ही ये उपकरण भेजे हैं । अभय कुमार मेरे उपकारी हैं, गुरु के समान हैं। उनकी कृपा से मैं सद्मार्ग प्राप्त कर सकूँगा।
आर्द्रकुमार की विरक्ति पिता का अवरोध
अव आर्द्र कुमार विरक्त रहने लगे। उनकी संसार एवं भोग में उदासीनता हो गई। एक दिन उन्होंने पिता से भारत (मगध) जा कर मित्र से मिलने की आज्ञा मांगी। आर्द्रक नरेश ने कहा--"श्रेणिक नरेश से अपना मैत्री-सम्बन्ध दूर रह कर निभाना ही
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org