Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र-भाग ३. छकककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककका
महाविद्वानों को संतुष्ट कर अपने में मिला लिया। अब मैं क्यों चुकं । मैं भी अपना भ्रम मिटा कर सत्य का आदर करूँ।" वे भी अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ भगवान् के समीप पहुँचे । भगवान् ने कहा--
"हे व्यक्त ! तुम तो सर्वत्र शून्य ही देखते हो । तुम्हें तो पृथिव्यादि पाँच भूत भी मान्य नहीं है। ये सब तुम्हें 'जल-चन्द्र-बिम्बवत्' लगते हैं। परन्तु तुम्हारा विचार मिथ्या है । क्योंकि जिनका अभाव ही है--अस्तित्व ही नहीं है--सब शून्य ही है, तो फिर संशय किस बात का? सद्भाव के विषय में संशय होता है। जैसे--रात्रि में ठंड देख कर, मनुष्य होने का संशय होता है, आकाश-कुसुम, शश-शृंग के अभाव का संशय भी आकाश और कुसुम तथा शशक और शृंग का भिन्न अस्तित्व तो बतलाते ही हैं।" व्यक्त याज्ञिक भी अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ दीक्षित हो गए । ये चौथे गणधर हुए।
५ सुधर्मा भी अपना सन्देह निवारण करने के लिये अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ भगवान के समीप आये । भगवान् ने पूछा ;--
. "हे सुधर्मा ! तुम मानते हो कि जीव की अवस्था परभव में भी एक-सी रहतो है। जो इस भव में पुरुष है, वह आगे के भव में भी पुरुष ही होगा क्योंकि कारण के अनुरूप ही कार्य होता है । शालि के बीज से शालि ही उत्पन्न होती है, जौ, गेहूँ आदि नहीं।" तुम्हारा यह विचार भी ठोक नहीं है । मनुष्य मृदुता, सरलतादि से मनुष्यायु का उपार्जन करता है, परन्तु जो मायाचारितादि पापों का आचरण करे, वह भी मनुष्य हो हो, ऐसा नहीं हो सकता । कारण के अनुरूप ही कार्य होने का कथन भी एकान्त नहीं है, क्योंकि शृंग आदि में से शर आदि की उत्पत्ति भी होती है।
सुधर्मा भी संशयातीत होकर शिष्यों सहित भगवान् के शिष्य बन गए और पाँचवें गणधर हुए।
६ मडितपुत्र साढे तीन सौ छात्रों सहित आये। भगवान् ने उन्हें संबोधन कर कहा,"तुम्हारा भ्रम, बन्धन और मुक्ति से संबंधित है। परन्तु बन्धन और मुक्ति आत्मा की होती है। मिथ्यात्व-अविरति आदि से किये हुए कर्म का सम्बन्ध ही बन्धन है। उस बन्धन रूपी रस्सी से खींचा हुआ जीव, नरकादि गतियों में जाता है और ज्ञान-दर्शनादि का आचरण कर के उन बन्धनों का छेदन करता है, उनसे मुक्त होता है । यद्यपि जोव और कर्म का सम्बन्ध प्रवाह रूप से अनादि से है, परन्तु जिस प्रकार अग्नि से पत्थर और स्वर्ण पृथक हो जाते हैं, उसी प्रकार वे बन्धन सर्वथा कट कर मुक्ति भी हो सकती है।"
मंडितपुत्र भी शिष्यों सहित दीक्षित हो कर छठे गणधर हुए।
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