Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
धर्म-देशना
२२७
का नाम 'मौर्य' और माता का नाम 'विजया' : था। ये ६५ वर्ष के थे ।
-त्रि. श. पु. चरित्रकार लिखते है कि "मण्डितपुत्र और मौर्यपुत्र की माता तो एक ही है, परन्तु पिता दो हैं-धनदेव और मौर्य ।" उनका कथन है कि धनदेव और मौर्य की माता सगी बहिनें थी। इसलिये ये मौसीपुत्र होने के कारण परस्पर भाई लगते थे । धनदेव क्री विजया पत्नी से मण्डित का जन्म हुआ । जन्म होने के पश्चात् धनदेव की मृत्यु हो गई । उस समय मौर्य अविवाहित था । वहाँ के लोकव्यवहार के अनुसार विधवा विजयादेवी का पुनर्विवाह मौर्य के साथ हुआ और उससे मौर्यपुत्र का जन्म हुआ। प्रचलित लोक-व्यवहार के अनुसार विजया का पुनर्विवाह हुआ था । इसलिए यह अनुचित नहीं था।
आवश्यक भाष्य गा. ६४४ में भी लिखा है कि-" मोरिअ सन्निवेसे दो भायर मंडिमोरिआजाया" गाथा ६४७ में इनके पिता का नाम “ध गदेव मोरिए" लिखा है । इसकी टीका में-“मंडिकस्स धनदेव, मौर्यस्य मौर्यः" माता का उल्लेख गा. ६४८ में "बजयादेवा" की टीका में-" मण्डिक-मौर्यपुत्राणां विजयदेवा पितभेदेन, धनदेवे पञ्चत्वमपागते मण्डि पुत्रसहिता मौर्ये गधता, ततोनौर्योजातः अविरोधश्च तस्मिन् देशे इत्यदूषणम् ।" __... उपरोक्त उल्लेख परममान्य आगम-विधान से बाधित है। इस उल्लेख में यह बताया गया है कि मंडितपुत्र बड़े और मौर्यपुत्र आयु में छोटे थे। परन्तु समवायांग सूत्र में लिखा है कि--
"थेरे मंडियपुत्ते तीसं वासाइं सामण्णपरियायं पाणित्ता सिद्ध बुद्ध जाव सव्वदुक्खप्पहीणे" (सम० ३०) अर्थात् मंडितपुत्र जी ३० वर्ष की श्रमण-पर्याय पाल कर मुक्ति को प्राप्त हुए । आगे चल कर इसी सूत्र में लिखा है कि--
"थेरे मंडियपुत्ते तेतीई वासाउं सवाउयं पालइत्ता सिद्धे जावप्पहोणे" (सम० ८३) अर्थात्-श्री मण्डितपुत्रजी ८३ वर्ष की समस्त आय भोग कर सिद्ध हुए ।
इन दोनों मलपाठों में मण्डितपुत्रजी की श्रमणपर्याय ३० वर्ष और सर्वांय ८३ वर्ष लिखी है। अब श्री मौर्यपुत्रजी के विषय में देखिये । इसी समवायांग सूत्र में लिखा है कि--
" थेरे मोरियपुत्ते पगतदिवासाइं अगारमज्ञपित्ता मुंडे भवित्ता.......... (सम० ६५) अर्थात्-श्री मौर्यपुत्रजीने ६५ वर्ष गृहस्थवास में रहने के बाद श्रमणदीक्षा अंगीकार की। आगे लिखा कि___धेरे मोरियपुत्ते पंचाणउइवासाइं सवार यं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे जावरपहीणे" (समः ९५) इसमें श्री मौर्यपुत्रजी की सर्वाव ९५ वर्ष की बतलाई है।
___यह तो सर्व विदित है एवं सर्वस्वीकार्य है कि सभी गणधरों की दीक्षा एक ही दिन हुई थी और इन दोनों का निर्वाणकाल भी एक ही दिन हआ था । अतएव दोक्षापर्याय ३० वर्ष थी। उपरोक्त
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org