Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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इन्द्रभूति आदि गणधरों की दीक्षा ာာာာာာာာာာာာာာာာားးsehhes Bed
'धिक्कार है इन देवों को ! क्या मेरे सामने और मुझ से भी बढ़ कर कोई सर्वज्ञ है -- इस संसार में ? सत्य ही कहा है कि-- मरुदेश के लोग अमृत समान मधुर फल देने वाले आम्रवृक्ष को छोड़ कर केरड़ा के झाड़ के पास जाते हैं । अरे मनुष्य मूर्खता करे, तो वे अज्ञानी होने के कारण उपेक्षणीय हो सकते हैं, परन्तु देव भी उस पाखण्डी के प्रभाव में आ कर, उसके पास जाने की मूर्खता कर रहे हैं। लगता है कि यह पाखण्डी कोई महान् भी एवं धूर्त है । मैं इन मनुष्यों और उन देवों के देखते ही उस पाखण्डी की सर्वज्ञता का दंभ खुला करके उसके घमण्ड को छिन्नभिन्न कर दूंगा ।
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इस प्रकार कहते और कोप में सुलगते हुए इन्द्रभूतिजी अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ उस उपवन में गए ।
इन्द्रभूति आदि गणधरों की दीक्षा
समवसरण की दैविक रचना और इन्द्रों द्वारा वंदित अतिशय - सम्पन्न भगवान् महावीर को देखते ही इन्द्रभूतिजी आश्चर्यान्वित हो गये । सहसा उनके हृदय ने कहा-'अहो, कितनी भव्यता ? कैसा अलौकिक व्यक्तित्व !" सहसा उनके कानों में भगवान् का सम्बोधन गुंजा --
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'इन्द्रभूति गौतम ! तुम आये । तुम्हारा आगमन श्रेयस्कर होगा ।" इन्द्रभूति ने सोचा--" क्या ये मेरा नाम और गोत्र जानते हैं ?” फिर अपने आप ही समाधान हो गया -- " मैं तो जगत्-प्रसिद्ध हूँ, इसलिये मुझे ये जानते ही होंगे। परन्तु यदि ये मेरे मन में रहे हुए गुप्त सन्देह को जान ले और उसका अपनी ज्ञान-गरिमा से निवारण कर दे, तब में इन्हें सर्वज्ञ-सर्वदर्शी मानूं ।” दर्शन मात्र से गर्व नष्ट होने और महान् विभूति स्वीकार करते हुए भी सर्वज्ञता का परिचय पाने के लिए इन्द्रभूतिज ने विचार किया । उनके संशय को नष्ट करने वाली मधुर वाणी पुनः सुनाई दी;
" हे गौतम ! तुम्हारे मन में जीव के अस्तित्व में ही सन्देह है । जीव के अरूपी होने के कारण तुम सोचते हो कि यदि जीव होता, तो वह घटपटादिवत् प्रत्यक्ष दिखाई देता । अत्यंत अप्रत्यक्ष होने के कारण तुम जीव का आकाश- कुसुमवत् अभाव मानते हो । किन्तु तुम्हारा विचार असत्य है । जीव है, वह चित्त, चेतन, ज्ञान, विज्ञान और संज्ञा आदि लक्षणों से अपना अस्तित्व प्रकट कर रहा । तुम्हें श्रुतियों में आये शब्द कि--" विज्ञान
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