Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
सिंह के जीव सुदंष्ट देव का उपद्रव ၃၀ ၃၆၀၃ မှ ၆၀၀
နီ
१६३
၈ နှီးနှီး {
န်နီ
နီ
समस्त बल व्यर्थ गया। अब उसके विचारों ने मोड़ लिया। दूध के समान रक्तधारा देख कर भी उसे आश्चर्य हुआ। वह प्रभु के मुखारविन्द को अपलक दृष्टि से देखने लगा । प्रभु के अलौकिक रूप एवं परम शान्त-सौम्य मुद्रा पर उसकी दृष्टि स्थिर हो गई। उसका रोष उपशान्त हो गया। उपयुक्त स्थिति जान कर प्रभु ने उद्बोधन किया--"चण्डकौशिक ! बुज्झ वुज्झ' (समझ समझ) भगवान् के ये शब्द सुन कर वह विचार करने लगा । एकाग्रता बढी और जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हआ। उसने अपने तपस्वी साधु-जीवन और उसमें क्रोधावेश में हुए पतन को देखा । अपनी भूल समझा। उसने प्रशस्त भाव से प्रभु की प्रदक्षिणा की और उसी समय अनशन करने का निश्चय कर लिया। सर्पराज के पवित्र संकल्प को जान कर प्रभु ने उसे निहारा । सर्पराज ने सोचा--"मेरी विषैली दृष्टि से किसी प्राणी का अनिष्ट न हो"--इस विचार से उसने अपना मुंह बाँबी में रखा और सारा शरीर बाहर स्थिर रख कर शांति एवं समतापूर्वक रहा । भगवान् भी वहीं ध्यानस्थ रहे ।
जिस समय भगवान् चण्डकौशिक के स्थान की ओर पधारे, उस समय कुछ ग्वाले भी--यह देखने के लिए पीछे-पीछे, कुछ दूर रह कर--चले कि देखें नागराज के कोप से ये महात्मा कैसे बचते हैं ? वे वृक्ष की ओट में रह कर देखने लगे। जब उन्होंने भगवान को सुरक्षित और सपं को निश्चल देखा, तो निकट आये और लकड़ी से सर्प को स्पर्श किया। उनको विश्वास हो गया कि सर्प का उपद्रव समाप्त हो चुका है। उन्होंने गाँव में आ कर इसकी चर्चा की। लोगों के झुण्ड के झुण्ड आने लगे। मार्ग चालू हो गया। लोग सर्प की वन्दना करने लगे। उस मार्ग से हो कर घृत बेचने जाने वाली स्त्रियें सर्प के शरीर पर घृत चढ़ाने लगी । घृत की गन्ध से चिंटियाँ आ कर सर्पराज के शरीर को छेदने लगी। सारा शरीर छलनी हो गया । असह्य वेदना होने लगी, परन्तु बड़ी धीरज एवं शांति के साथ वह सहन करता रहा । अन्त में पन्द्रह दिन का अनशन कर के मृत्यु पा कर वह सहस्रार कल्प में देव हुआ।
सिंह के जीव सुदृष्ट देव का उपद्रव चण्डकौशिक सर्प का उद्धार कर के भगवान् उत्तर वाचाल की ओर पधारे । अर्धमासिक तप के पारणे के लिए भगवान् नागसेन के यहाँ पधारे । नागसेन का इकलौता पुत्र
दूध उत्पन्न होने का कारण, गर्भ के निमित्त से होने वाला शरीर में परिवर्तन मात्र है, संतान-प्रेम नहीं और तीर्थकर भगवान के शरीर में दुग्धवर्णी रक्त होना उनके उत्तमोत्तम औदारिक-शरीर नामकर्म उदय का
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org