Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र - भा. ३
सुगुप्त की पत्नी नन्दा भी परम श्राविका थी और रानी की सहेली थी। उस नगरी में धनवाह नाम का एक धनाढ्य सेठ रहता था । उसकी पत्नी का नाम मूला था । भगवान् ने पौष मास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा के दिन ऐसा अभिग्रह धारण किया कि जो पुरा होना महाकठिन - - अशक्य - सा था । भगवान् ने प्रतिज्ञा कर ली कि-
“ कोई सुन्दर सुशीला राजकुमारी विपत्ति की मारी दासत्व दशा में हो । उसके पाँवों में लोहे की बेड़ियाँ पड़ी हुई हो, मस्तक मुंडा हुआ हो, तीन दिन की भूखी हो, वह रुदन करती हो, उसका एक पाँव देहली के भीतर और दूसरा बाहर हो, भिक्षा का समय बीत चुका हो, वह यदि सूप के एक कोने में रखे हुए कुल्मास ( उड़द ) देगी, तो मैं ग्रहण करूँगा । भगवान् ने अत्यन्त कठोर ऐसे घातिकर्मों को नष्ट करने के लिए कितना घोर व्रत धारण किया था । ऐसा अभिग्रह पूरा होना असंभव ही लगता था । भगवान् यथासमय भिक्षाचरी के लिए निकलते और शान्तभाव से लौट आते । कोई आहार देने लगता, तो भी वे नहीं ले कर लौट आते । वे अपने अभिग्रह के अनुसार ही ले सकते थे । परन्तु ऐसा अभिग्रह सफल होना सरल नहीं था । भगवान् को बिना आहार लिये लौटते और इस प्रकार होते चार मास व्यतीत हो गए। एक दिन भगवान् राज्य के मन्त्री के यहाँ भिक्षाचरी के लिए गये । उसकी पत्नी सुश्राविका नन्दा ने भगवान् को दूर से अपनी ओर आते हुए देखा । वह अत्यन्त प्रसन्न हुई और अपने भाग्य की सराहना करती हुई हर्षोल्लासपूर्वक भगवान् के सम्मुख आई और वन्दना - नमस्कार कर के आहार ग्रहण करने की विनती की। परन्तु भगवान् बिना आहार लिये वैसे ही लौट गए । नन्दा उदास हो गई । उसके घर पधारे हुए परम तारक खाली लौट गए। वह अपने भाग्य को धिक्कारने लगी और शोकाकूल हो गई । वह चिन्ता में निमग्न थी कि उसकी दासी ने आ कर उससे उदासी का कारण पूछा। स्वामिनी की बात सुन कर सेविका बोली--" देवी ! आप चिन्ता क्यों करती हैं । भगवान् तो लगभग चार महीने से इसी प्रकार बिना आहार पानी लिये लौटते रहते हैं । नगर में इस बात की चर्चा हो रही है । कई लोग चिन्तित रहते हैं, परन्तु कोई उपाय नहीं सूझता । आपके चिंता करने से क्या होगा ?"
नन्दा समझ गई कि भगवान् ने कोई अपूर्व अभिग्रह किया है । परन्तु वह अभिग्रह कैसा है ? किस प्रकार जाना जाय ? वह इसी विचार में थी कि मन्त्रो सुगुप्तजी राज्य-महालय से लौट कर घर आये । पत्नी को चिन्तित देख कर पूछा - "प्रिये ! आज शरद्-चन्द्र पर ग्रहण की कालिमा क्यों छाई हुई है ? क्या किसी ने तुम्हारी आज्ञा को अवहेलना की, अपमान किया ? या मुझसे कोई भूल हो गई ?”
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