Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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ग्वाले ने कानों में कीलें ठोकी
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इनका शरीर सुदृढ़ एवं महान् बलशाली है। किसी मनुष्य की शक्ति नहीं कि इन पर इस प्रकार का अत्याचार करे। इन्होंने चाह कर शान्तिपूर्वक यह भयानक अत्याचार सहन किया है। इतना ही नहीं, ये इन शूलों को निकलवाने का प्रयत्न भी नहीं करते। हमने इन्हें पकड़ कर निरीक्षण परीक्षण किया, परन्तु इन्होंने यह तक नहीं पूछा कि---"मेरे ये शूल निव ल जावेंगे ? तुम निकाल दोगे ? मेरा कष्ट दूर हो जायगा ?" लगता है कि ये महात्मा शरीर-निरपेक्ष हो गए हैं--आत्म-निष्ठ हैं । इनकी सेवा तो परमोत्कृष्ट सेवा है। इसका लाभ तो लेना ही चाहिए।"
"बस अब बात करने का नहीं, काम करने का समय है । अब विलम्ब नहीं होना चाहिए"--सिद्धार्थ ने कहा ।
तेलपात्र ओषधि और कुछ सहायक ले कर सिद्धार्थ और वैद्य घर से चले । भगवान् तो उद्यान में पधार कर ध्यानस्थ हो गए थे। सिद्धार्थ और खरक-वैद्य, उपचार की सामग्री के साथ उद्यान में आये । उन्होंने भगवान् के शरीर पर तेल का खूब मर्दन कर वाया, जिससे शरीर के साँधे ढीले हो गए। इसके बाद दो संडासे लिये और प्रभु के दोनों कानों से दोनों कीलों के सिरे पकड़ कर एक साथ खीचे, जिससे रक्त के साथ दोनों कीलें निकल गई । इससे भगवान् को महान् वेदना हुई। इसके बाद रक्त पोंछ कर वैद्य ने सरोहिणी ओषधि लगा कर, उन छिद्रों को बन्द कर दिये । भगवान् को शान्ति मिली । सिद्धार्थ श्रेष्ठो और खरक वैद्य ने शुभ अध्यवसाय एवं शुभयोग से देवायु का बन्ध किया और उस अधम ग्वाले ने सातवें नरक का आयु बांधा ।
यह भगवान् पर छद्मस्थकाल का अन्तिम उपसर्ग था । भगवान् को जितने उपसर्ग हुए उनमें जघन्य उपसर्गों में कठपूतना का उपद्रव, मध्यम में संगम के कालचक्र का उपद्रव और उत्कृष्ट में कानों में से शूलोद्धार का उपसर्ग सर्वाधिक था। ग्वाले से प्रारम्भ हुए उपसर्ग, ग्वाले के उपसर्ग से ही समाप्त हुए ।
x ग्रन्थकार लिखते हैं कि कानों से कीलें निकालते समय भगवान को इतनी घोर वेदना हई कि जो सहन नहीं हो सकी और भगवान के मुँह से जोरदार चीख निकल गई। भगवान के मुंह से निकले इस भयंकर नाद से उस उद्यान का नाम 'महाभैरव' हो गया। विचार होता है कि भगवान् ने शुलपाणी
और संगम आदि के भयंकरतम उपसर्ग सहन किये । वे उस समय तो नहीं डिगे और चिल्लाहट नहीं हुई, फिर यहां कैसे हो गई ? गजसुकुमालजी के मस्तक पर आग जलाते हुए भी चिल्लाहट नहीं हुई और वे दढ एवं अडोल रहे, तब तीर्थकर भगवान से कैसे हो गई ? इस पर विचार होना चाहिये। ग्रंथकारों ने तो लिखा है।
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