Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तेजोलेश्या की प्राप्ति और दुरुपयोग
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तेजोलेश्या की प्राप्ति और दुरुपयोग
भगवान् से पृथक् हो कर गोशालक, श्रावस्ती नगरी पहुँचा और एक कुम्भकार को शाला में रह कर तेजोलेश्या प्राप्त करने के लिये विधिपूर्वक तप करने लगा। छह मास पयन्त तप साधना कर के तेजोलेश्या शक्ति प्राप्त की। गोशालक को अपनी शक्ति की परीक्षा करनी थी। वह कुएँ पर गया। तेजोलेश्या का उपयोग क्रोधावेश में होता है । अपने में क्रोध उत्पन्न करने के लिये गोशालक ने कुएँ से जल भर कर जाती हुई एक पनिहारी के जलपात्र को पत्थर मार कर फोड़ दिया ।पनिहारी क्रुद्ध हुई और गोशालक को गालियाँ देने लगी । गालियाँ सुन कर गोशालक क्रोधित हुआ और प्राप्त शक्ति का एक निरपराध स्त्रो पर प्रहार कर के उसकी हत्या कर डाली। जिस प्रकार बिजली गिरने से मनुष्य मर जाता है, उसी प्रकार वह पनिहारी तत्काल भस्म हो गई।
कुपात्र को शक्ति या सत्ता प्राप्त हो जाय तो वह दूसरों के लिए दुःखदायक और घातक हो जाता है । यदि गोशालक में विवेक होता, तो वह सूखे काष्ठ पर प्रयोग कर सकता था । आत्मार्थी संत तो ऐसा सोचते भी नहीं । वे विपुल तेजोलेश्या को अत्यन्त संक्षिप्त कर के दबाये रखते हैं । उनके मन में यह भाव भी उत्पन्न नहीं होता कि वे 'विशिष्ट शक्ति के स्वामी हैं।' परन्तु गोशालक तो कुपात्र था । इस शक्ति के द्वारा आश्चर्यभूत घटना घटित हो कर, उसका महान् अधःपतन होने की भवितव्यता सफल होनी थी।
गोशालक द्वारा पनिहारी की मृत्यु देख कर लोग भयभीत हो गए। वह शक्तिशाली महात्मा के रूप में प्रसिद्ध होने लगा।।
तीर्थकर होने का पाखण्डपूर्ण प्रचार
गोशालक अपने को शक्तिशाली महात्मा मानता हुआ गर्वपूर्वक विचरने लगा। कालान्तर में उसे भ० पार्श्वनाथजी के वे छह शिष्य मिले, जो संयम से पतित हो कर विचर रहे थे । वे अष्टांग निमित्त के निष्णात पंडित थे। उनके नाम थे-शान, कलिंद कणिकार, अच्छिद्र, अग्निवेशायन और गोमायुपुत्र अर्जुन । गोशालक की उनसे प्रीति हो गई और वे गोशालक के आश्रित हो गए । गोशालक ने उनसे अष्टांग निमित्त सीख लिया।
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