Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थकर चरित्र-भाग ३
संगम क्षमा मांग कर चला गया संगम ने देखा कि भगवान् तो अब भी प्रथम-दिन की भाँति दृढ़ अडोल और परम शान्त हैं । चलायमान होना तो दूर रहा, एक अंशमात्र भी ढिलाई नहीं । वही दृढ़ता, वही शान्ति और अपने परम शत्रु के प्रति किञ्चित् भी रोष नहीं । वास्तव में यह महात्मा महावीर ही है और परम अजेय है । इन्हें समस्त लोक की सम्मिलित शक्ति भी अपनी दृढ़ता से अंशमात्र भी नहीं हटा सकती। इन्द्र का कथन पूर्ण रूप से सत्य था। मैने व्यर्थ ही रोष किया और अपनी सुख-शान्ति छोड़ कर छह मास पर्यंत इनके पीछे भटकता रहा और निष्फल ही रहा । विशेष में हँसी का पात्र भी बना । अब हठ छोड कर अपनी पराजय स्वीकार करना ही एकमात्र मार्ग है और यही करना चाहिए।
संगम भगवान् के सामने झुका और हाथ जोड़ कर बोला ;--
"हे महात्मन् ! शकेन्द्र ने अपनी देवसभा में आपकी जो प्रशंसा की थी, वह पूर्णरूपेण सत्य थी। मैने इन्द्र के वचन पर श्रद्धा नहीं की और उनके वचन को मिथ्या सिद्ध करने के लिए आपके पास आया। मैने आपको छह मास पर्यन्त घोरतम कष्ट दिया, असह्य उपसर्ग दिये और घोरातिघोर दुःख दिये । परन्तु आप तो महान् पर्वत के समान अडोल निष्कम्प और शान्त रहे । मेरा प्रण पूरा नहीं हुआ। मैं प्रतिज्ञा-भ्रष्ट हुआ। मैने यह अधमाधम कार्य किया। हे क्षमासिन्धु ! मेरा घोर अपराध क्षमा कर दीजिये। मैं अब यहाँ से जा रहा हूँ। आप अब इस गाँव में पधारें और निर्दोष आहार ग्रहण कर के छह मास की तपस्या का पारणा करें। पहले आपकी भिक्षाचरी में मैं ही दोष उत्पन्न कर रहा था ।"
भगवान् ने कहा-"संगम ! तुम मेरी चिन्ता मत करो। मैं किसी के आधीन नहीं हूँ । मैं अपनी इच्छानुसार ही विचरता हूँ।"
प्रभु को वन्दना-नमस्कार कर के पश्चात्ताप करता हुआ संगम स्वस्थान गया। दूसरे दिन भगवान् पारणा लेने के लिए गोकुल में पधारे और एक वृद्ध वत्सपालिका अहिरन ने भगवान् को भक्तिपूर्वक परमान्न प्रदान किया । छह मासिक दीर्घ तपस्या का पारणा होने से देवों ने पंचदिव्य की वर्षा की और जय-जयकार किया।
संगम का देवलोक से निष्कासन संगम देव जब तक भगवान् पर घोरातिघोर उपसर्ग करता रहा, तब तक स्वर्ग में इन्द्र और उसकी सभा के सदस्य अन्यमनस्क एवं चिन्तित हो कर देखते रहे । स्वयं शकेन्द्र
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