Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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संगम का देवलोक से निष्कासन $$$$$ $$ $$$ ••• • • 4 -£• နေ့• { ၀ ၆၀၀ ၈၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀
भी रग-राग और हास्य-विलासादि छोड़ कर खेदित रहा । वह सोचता-“भगवान् को इतने घोर उपसर्ग का कारण मैं स्वयं ही बना हूँ । यदि में सभा में भगवान की प्रशसा नहीं करता, तो संगप कोधित नहीं होता और प्रभु पर घोर उपसर्ग नहीं करता ।
पापपंक से म्लान, लज्जित, निस्तेज एवं अपमानित बना हुआ संगम, नीचा मुंह किये हुए सभा में गया, तो इन्द्र ने मुँह मोड़ कर कहा -
"देवगण ! यह संगम महापापी है। इसका मुंह देखना भी पाप है। इसने भगबान पर घरातिघोर अत्याचार किये हैं । यह महान् अपराधी है । हमारी देवसभा में वैठने के योग्य यह नहीं रहा । इसलिये इसको इस देवसभा से ही नहीं, देवलोक से भी निकाल देना चाहिए।"
इतना कह कर इन्द्र ने अपने बायें पाँव से संगम पर प्रहार किया और सैनिकों ने उसे धक्का दे कर सभा से बाहर निकाल दिया । देव-देवी अनेक प्रकार के अपशब्दों एवं गालियों से उसका अपमान करने लगे। देवलोक से निकाला हुआ संगम अपने विमान में बैठ कर स्वर्ग छोड़ कर मेरुपर्वत की चूलिका पर गया और अपना शेष जीवन वहीं व्यतीत करने लगा । संगम की देवियों ने इन्द्र से प्रार्थना की और इन्द्र से अनुमति ले कर वे भी मेरुपर्वत पर संगम के साथ रहने के लिये चली गई । अन्य पारिवारिक देव-देवियों को जाने की अनुमति नहीं मिली। वे वहीं रहे । संगम अब तक निर्वासित जीवन बिता रहा है।
.इन्द्र का अपने को दोषित मानना तो योग्य नहीं है। यदि किसी साधु को देख कर कोई पापी डाह करे और भगवान महावीर के निमित्त से गोशालक ने महा मोहनीय-कर्म और अन्य कर्मों का प्रगाढ बन्ध कर लिया, तो इसका दोष भगवान् पर नहीं आ सकता। वह पापात्मा ही दोषी है। शकेंद्र तो शुभ भावों और शभ वचनयोग से पूण्य-प्रकृति का बन्धक बना।
यदि इन्द्र चाहता, तो संगम को प्रारंभ में या मध्य में ही रोक सकता था । संगम इन्द्र के आधीन था । इन्द्र एवं इन्द्रसभा के सदस्य उसे रोक सकते थे। उन्हें असहाय के समान विवश होने की आवश्यकता ही नहीं थी। छह मास तक संगम । भगवान् पर उपद्रव करते रहने देने और चुपचाप देखते रहने क कारण ही क्या था ? इस तर्क का उत्तर यह है कि भगवान् ने स्वयं इन्द्र को पहले ही कह दिया था कि" मुझे तुम्हारी सहायता की आवश्यकता नहीं है। मैं अपने कर्म-बन्ध स्वयं ही तोडूंगा।" इसीलिये भगवान अनार्य देश में गये थे। और भगवान के कर्म ही इतने प्रगाढ़ और अधिक थे कि जिन्हें नष्ट करने के लिये ऐसे घोर निमित्त की आवश्यकता थी ही।
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