Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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गोशालक की कुपात्रता
.......................................... भूख से पीड़ित गोशालक को क्रोध आ गया। वह उत्तेजनापूर्वक बोला-" मेरे गुरु के तप तेज से यह तुम्हारा उपाश्रय जल कर अभी भस्म हो जाय ।"
गोशालक का शाप व्यर्थ गया । उसे आशा थी कि उसका कोप सफल होगा। वह निराश हो कर प्रभु के निकट आया और बोला
"भगवन् ! मैने आपकी निन्दा करने वाले सग्रंथी साधुओं को शाप दिया, किन्तु वे आपके निन्दक भस्म नहीं हुए। आपका तप-तेज व्यर्थ क्यों गया?"
"मूर्ख ! वे भगवान पार्श्वनाथ स्वामी के शिष्यानुशिष्य निग्रंथ थे । तेरे शाप से उन संयमी संतों का अनिष्ट नहीं हो सकता । तू ऐसी अधम चेष्टा मत किया कर"-- सिद्धार्थ ने कहा।
रात्रि के समय भगवान् प्रतिमा धारण कर के ध्यानस्थ रहे। कुंभकार कूपन मदिरापान कर के उन्मत्त बना हुआ कहीं से आ रहा था। आचार्य मुनिचन्द्रजी को ध्यानस्थ देख कर उसका क्रोध उभरा। उसने चुपके से निकट जा कर उनका गला घोटा और प्राणरहित कर दिया । मुनिराज अपने शुभध्यान में अडिग रहे । तत्काल घातीकर्म क्षय कर केवल. ज्ञान प्राप्त किया x और योग-निरोध कर मुक्ति प्राप्त कर ली । निकट रहे हुए व्यन्तरों ने महामुनि के महान् त्याग और तप की महिमा की । देवों के प्रभाव से वह स्थान रात्रि के समय भी महाप्रकाश से जगमगा रहा था। गोशालक ने जब यह देखा तो वह समझा कि मेरे शाप के प्रभाव से उनका उपाश्रय जल रहा है । उसने भगवान् से पूछा-"प्रभो! मेरे शाप के प्रभाव से उपाश्रय जल रहा है ?" सिद्धार्थ व्यन्तर ने प्रभु की वाणी में कहा
"मूढ़ ! तू किस भ्रम में है यह प्रकाश उन महात्मा के मोक्ष-गमन की महिमा बता रहा है, जो वहाँ ध्यान कर रहे थे।"
गोशालक वहाँ पहुँचा । उसे देवों के दर्शन तो नहीं हुए, परन्तु पुष्पादि सुगन्धित द्रव्यों से उसे प्रसन्नता हुई । वहाँ से चल कर उन आचार्यश्री के शिष्यों के निकट पहुँचा और जोर से बोला--
"अरे, तुम पेटभरों को कुछ पता भी है, या नहीं ? तुम्हारे आचार्य निर्जीव पड़े हैं और तुम सुख की नींद सो रहे हो।"
... गोशालक की बात सुन कर शिष्य जागे और आचार्य के निर्जीव शरीर को देखकर अत्यन्त खेद एवं पश्चात्ताप करने लगे। गोशालक उनकी निन्दा करता हुआ स्वस्थान आया।
__.४ पूज्य श्री हस्तीमलजी म. सा. ने 'जैनधर्म के इतिहास' पृ. ३७८ में ऐसा ही लिखा है। परन्तु त्रि. श. पु. च. में अवधिज्ञान प्राप्त कर स्वर्गस्थ होना लिखा है।
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