Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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गोशालक पृथक् हुआ
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कर के रहे । गोशालक गाँव में गया । वहाँ भगवान् पार्श्वनाथजी के संतानिक आचार्य श्री नन्दीसेनजी थे । वे जिनकल्प के तुल्य साधना कर रहे थे । गोशालक ने उनकी भी हँसी उड़ाई। वे महात्मा रात्रि के समय बाहर ध्यानस्थ खड़े थे । ग्रामरक्षकों ने उन्हें चोर जान कर इतनी मार मारी कि उनका प्राणान्त हो गया । उन्हें भी केवलज्ञान हो कर निर्वाण हो गया था। देवों ने महिमा की । गोशालक ने वहाँ भी उनके शिष्यों की भर्त्सना की । वहाँ से विहार कर के भगवान् कूपिका ग्राम के निकट पधारे । वहाँ आरक्षकों ने गुप्तचर की भ्रांति से भगवान् और गोशालक को बन्दी बना कर सताने लगे । उस गाँव में प्रगल्भा और विजया नामकी दो परिव्राजिका रहती थी, जो सम्यग् चारित्र का त्याग कर के परिव्राजिका बनी थी । उन्होंने गुप्तचर की बात सुनी तो देखने आई। भगवान् पहिचान कर उन्होंने परिचय दिया और वह उपसर्ग टला । आरक्षकों ने क्षमायाचना की ।
गोशालक पृथक् हुआ
कूपिका से भगवान् ने विशाला नगरी की ओर विहार किया । गोशालक ने सोचा -" मेरा भगवान् के साथ रहना निरर्थक है । ये अधिकतर तपस्या और ध्यान में रहते हैं । न तो इनकी ओर से भिक्षा प्राप्ति में अनुकूलता होती है और न रक्षा ही होती है । लोग मुझे पीटते हैं, तो ये मेरा बचाव भी नहीं करते । इनके साथ रहने से विपत्तियों की परम्परा बढ़ती है । ये ऐसे प्रदेश में जाते हैं कि जहाँ के लोग अनार्य क्रूर और शत्रु जैसे हों । इनके साथ रहने में कोई लाभ नहीं हैं ?" इस प्रकार सोचता हुआ वह चला जा रहा था कि ऐसे स्थल पर पहुँचा जहाँ का मार्ग दो दिशाओं में विभक्त हो गया था ।
गोशालक ने कहा-
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'भगवन् ! अब मैं आपके साथ नहीं रह सकता । आपके साथ रहने में कोई लाभ नहीं है । मैं अब इस दूसरे मार्ग से जाना चाहता हूँ । आपके साथ रहने से मुझे दुःख भोगना पड़ता है और कभी भूखा ही रहना पड़ता है । आपके साथ रहने में लाभ तो कुछ है ही नहीं ।"
सिद्धार्थ व्यन्तर ने भगवान् की ओर से कहा--" जैसी तेरी इच्छा । हमारी चर्या तो ऐसी ही रहेगी ।"
भगवान् वहाँ से विशाला के मार्ग पर पधारे और गोशालक राजगृह की ओर चला ।
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