Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र-भाग ३ ककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककका
द्रव्य-शुद्धि, दायक-शुद्धि और पात्रशुद्धि एवं उस उत्तम भावना में में उसने देवायु का बन्ध किया और संसार को ही परिमित कर लिया। निकट रहे हुए देवों ने विजय-श्रेष्ठि के इस महादान की प्रशंसा करते हुए पाँच दिव्यों की वृष्टि की।
देवों द्वारा विजय-श्रेष्ठि की प्रशंसा सुन कर राजगृह की जनता भी विजय-श्रेष्ठि की प्रशंसा करने लगी । जब गोशालक ने दिव्य-ध्वनि और विजय सेठ की प्रशंसा सुनी, तो वह विजय सेठ के घर आया। उस समय भगवान् आहार कर के विजय सेठ के घर से बाहर निकल रहे थे। विजय सेठ भगवान् को पहुँचाने पीछे-पीछे चल रहा था। गोशालक ने देवों द्वारा की हुई रत्नादि की वृष्टि और भगवान् तथा विजय सेठ को देखा । गोशालक प्रसन्न हुआ। उसकी प्रसन्नता भौतिक दृष्टि लिये हुए थी। उसने सोचा-"ये महात्मा महान् शक्तिशाली हैं । इनकी सेवा से मैं भी महात्मा बन जाऊँगा । मेरे रोजी रोटी के इस तुच्छ धन्धे में रखा ही क्या है ? ' वह भगवान् के पास आया और वन्ना -नमस्कार कर के बोला- 'भगवन् ! आप मेरे धर्माचार्य, धर्मगुरु हैं और मैं आपका शिष्य हूँ।" गोशालक की इस बात को भगवान् ने स्वीकार नहीं की और मौन ही रहे । फिर भगवा । वहाँ से चल कर उस तंतुवायशाला में पधारे और दूसरा मासखमण स्वीकार कर लिया।
दूसरा मासखमण पूर्ण होने पर भगवान् ने राजगृह के आनन्द गाथापति के यहाँ पारणा किया। वहाँ भी दिव्य देव वृष्टि हुई और आनन्द के दान की प्रशंसा हुई।
तीसरे मासखमण का पारणा सुनन्द गाथापति के यहाँ हुआ और चौथे मासखमण की पूर्ति होते ही चातुर्मास-काल पूर्ण हो गया । भगवान् नालन्दा की तंतुवायशाला से निकल कर कोल्लाक सन्निवेश पधारे । वहाँ 'बहुल' नाम का ब्राह्मण रहता था। वह वैदिक शास्त्रों का विद्वान और ऋद्धिमंत था। उसने कार्तिकपूर्णिमा के दूसरे दिन मधु और घृत से परिपूर्ण परमान्न (खीर) का भोजन बना कर ब्राह्मणों को भोजन कराया था । भगवान उस दिन बहुल ब्राह्मण के घर में प्रविष्ट हुए । बहुल भगवान् को देख कर अत्यंत प्रसन्न हुआ और भक्तिपूर्वक परमान्न से प्रतिलाभित किया। वहाँ भी देवों ने रत्नादि की दिव्यवृष्टि की और बहुल के दान की प्रशंसा की।
गोशालक की उछ बलता
भगवान तो दीधनस्वी थे। उनके मासिक तप चल रहा था। किन्तु गोशालक त स्वा नहीं था। उसे मालूम ही नहीं था कि भगवान् कब भोजन करेंगे, कहाँ करेंगे और
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