Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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सुवर्णबाहु चक्रवर्ती का आठवां भव
लित नहीं कर सकी । प्रातःकाल होने के बाद महात्मा आगे चलने लगे। उधर वह कुरंग क भिल्ल भी शिकार के लिए घर से निकला । पूर्वभव का वैर उसे महात्मा की ओर खिंच लाया। उदयभाव में रहा हुई पापी परिणति भड़की | महात्मा के दर्शन को अपशकुन मान कर क्रोधाग्नि सुलगी । धनुष पर बाण रख कर खिंचा और मारा प्रहार से पीड़ित महात्मा सावधान हुए। भूमि का प्रमार्जन कर के बैठ गए । महालाभ का सुअवसर पा कर वे संतुष्ट हुए । आलोचनादि कर के अनशन कर लिया और आयु पूर्ण कर के मध्य प्रवेयक में 'ललितांग' नामक महद्धिक देव हुए ।
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महात्मा को एक ही बाण से मरणासन्न कर वह भिल्ल अत्यन्त हर्षित हुआ और अपने बल का घमण्ड करता हुआ हिंसा में अधिक प्रवृत्त हुआ और जीवनभर हिंसा में रत रहा। कुरंगक भिल्ल मर कर सातवीं नरक के रौरव नरकावास में उत्पन्न हुआ और अपने पास का महान् दुःखदायक फल भोगने लगा ।
सुवर्णबाहु चक्रवर्ती का आठवां भव
इस जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह में 'पुरानपुर' नामक नगर था। कुलिशबाहु नाम का महाप्रतापी राजा वहां राज करता था । सुदर्शना महारानी उसकी अत्यन्त सुन्दरी प्रियतमा थी । महात्मा वज्रनाभजी का जीव ग्रैवेयक की आयु पूर्ण कर के महारानी की कुक्षि में आया | महारानी ने चक्रवर्ती महाराजा के आगमन को सूचित करने वाले चौदह महास्वप्न देखें । गर्भकाल पूर्ण होने पर एक सुन्दर पुत्र का जन्म हुआ । जन्मोत्सव कर के महाराज ने पुत्र का नाम 'सुवर्णबाहु' रखा । यौवनवय प्राप्त होने तक कुमार ने सभी कलाएँ हस्तगत करली और महान् योद्धा बन गया । महाराज ने कुमार का राज्याभिषेक किया और स्वयं संसार को त्याग कर के निग्रंथ - प्रव्रज्या ग्रहण कर ली ।
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ऋषि के आश्रम में पद्मावती से लग्न
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महाराज सुवर्णबाहु महाबलवान थे । वे नीतिपूर्वक राज्य चलाने लगे और इन्द्र के समान उत्तम भोग भोगते हुए विचरने लगे । एक बार वे उत्तम अश्व पर चढ़ कर वनविहार करने गए । अंगरक्षकादि सेना भी साथ थी । घोड़े की शीघ्रगति जानने के लिए
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