Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
तीर्थकर चरित्र-भाग ३
कककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककक्कड
भिक्षाचरी के लिये गये । हमें भिक्षा नहीं मिली। लौट कर देखा, तो सार्थ प्रस्थान कर गया था। हम उसके पीछे चलते रहे और मार्ग भूल कर इस अटवी में भटक रहे हैं,"-अग्रगण्य महात्मा ने कहा।
"अहो, वह सार्थ कितना निर्दय, पापपूर्ण और विश्वासघाती है कि अपने साथ के साधुओं को निराधार छोड़ कर चल दिया? परन्तु इस निमित्त भी मुझे तो संत-महात्माओं की सेवा का लाभ मिला. ही"-इस प्रकार कहता हुआ और प्रसन्नता अनुभव करता हुआ नयसार महात्माओं को अपने भोजन के स्थान-वृक्ष के नीचे-लाया और भक्तिपूर्वक आहार-पानी दिया। मुनियों ने एक वृक्ष के नीचे विधिपूर्वक बैठ कर आहार किया। तदुपरान्त नयसार ने साथ चल कर नगर का मार्ग बताया। प्रमुख महात्मा ने उसे वहीं बैठ कर धर्मोपदेश दिया। नयसार प्रतिबोध पाया और सम्यक्त्व लाभ लिया।
नयसार अब धर्म में विशेष रुचि रखने लगा। तत्त्वों का अभ्यास किया। नमस्कार महामन्त्र का स्मरण करता हुआ, अन्त समय में शुभ भावनायुक्त काल कर के वह प्रथम स्वर्ग में एक पल्योपम की स्थिति वाला देव हुआ।
भरत पुत्र मरीचि
इस भरतक्षेत्र में विनीता' नाम की श्रेष्ठ नगरी थी । भगवान् आदिनाथ के पुत्र महाराजाधिराज भरतजी राज्याधिपति थे । नयसार का जीव प्रथम स्वर्ग से च्यव कर भरत महाराज के पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। बालक के शरीर में से मरीचि (किरणें) निकल रही थी। इससे उसका नाम 'मरीचि' रखा ।
भ० ऋषभदेवजी का विनीता में प्रथम समवसरण था । मरीचि भी अपने पिता और भ्राताओं के साथ समवसरण में भगवान् को वन्दन करने आया । प्रभु की देवों और इन्द्रों द्वारा हुई महिमा देख कर और भगवान् का धर्मोपदेश सुन कर वह सम्यग्दृष्टि हुआ और संसार से विरक्त हो कर प्रव्रज्या स्वीकार कर ली । संयम की शुद्धतापूर्वक आराधना करने के साथ उसने ग्यारह अंगों का ज्ञान प्राप्त किया। वर्षों तक संयम का पालन करते हुए एक बार ग्रीष्म ऋतु आई । सूर्य के प्रचण्ड ताप से भूमि अति उष्ण हो गई । भूमि पर नग्न पाँव धरना अत्यन्त कष्टदायक हो गया। उसके पहिने हुए दोनों वस्त्र प्रस्वेद से लिप्त हो गए। उसे प्यास का परीषह भी बहुत सताने लगा। इस निमित्त से मरीचि के मन में चारित्रमोहनीय का उदय हुआ। वह सोचने लगा;--
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org