Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
नन्दनमुनि की आराधना और जिन नामकर्म का बन्ध
हुए मन-वचन और काया से मुझे उस और काया से उसकी निन्दा करता हूँ उपयोग नहीं किया हो और वीर्याचार वोसिराता हूँ ।
हो, तो उस दुष्कृत्य को में अन्तःकरण से पृथक् करता हूँ । बाह्य और आभ्यन्तर तप करते तपाचार में कोई दोष लगा हो, तो मैं मन-वचन धर्म का आचरण करने में मैंने अपनी शक्ति का को प्रमादवश छुपाया हो, तो मैं उस पाप को
।
मैने किसी जीव की हिंसा की हो, किसी जीव को खेद क्लेश या परिताप उत्पन्न किया हो, किसी का हृदय दुखाया हो, किसी को दुष्ट वचन कहे हों, किसी की कोई वस्तु हरण कर ली हो और किसी भी प्रकार का अपराध किया हो, तो वे सब मुझे क्षमा करें । मेरी किसी के साथ शत्रुता नहीं है । परन्तु यदि किसी के साथ मेरा शत्रुतापूर्ण व्यवहार हुआ हो, मित्र सम्बन्धी के साथ व्यवहार में मुझसे कुछ अप्रिय हुआ हो, तो वे सब मुझे क्षमा करें। सभी जीवों के प्रति मेरी समान बुद्धि है । तिर्यचभव में, नारक, मनुष्य और देव-भव में मैने किसी जीव को दुःख दिया हो, तो वे सभी मुझे क्षमा करें। मैं उन सब से क्षमा चाहता हूँ । सब के प्रति मेरा मैत्रीभाव है ।
जीवन, यौवन, लक्ष्मी, रूप और प्रिय-समागम ये सब समुद्र की तरंगों के समान चपल अस्थिर और विनष्ट होने वाले हैं । जन्म- जरा और व्याधि तथा मृत्यु से ग्रस्त जीवों को श्री जिनेश्वर भगवंत के धर्म के सिवाय अन्य कोई भी शरणभूत नहीं है । संसार के सभी जीव मेरे स्वजन भी हुए और परजन भी हुए। यह सब स्वपार्जित कर्मों का परिणाम है । इस कर्म - परिणाम पर किसी का प्रतिबंध नहीं होता । जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरता है । अपने सुख और दुःख का अनुभव भी अकेला ही करता है । यह शरीर और स्वजनादि सभी आत्मा से भिन्न अन्य -- पर हैं । किंतु मोहमूढ़ता से जीव उन्हें अपना मान कर पाप करता है । रक्त, मांस, चरबी, अस्थि, ग्रंथी, मज्जा, विष्ठा और मूत्र से जीव उन्हें अपना मान कर पाप करता है । रक्त, मांस, चरबी, अस्थि, ग्रंथी, मज्जा, भण्डार रूप शरीर पर मोह करना बुद्धि-हीनता अंत में छोड़ना ही पड़ता है । मैं इस शरीर के
विष्ठा और मूत्र से भरे हुए अशुचि के है । यह शरीर भाड़े के घर के समान ममत्व का त्याग करता हूँ ।
का शरण हो और केवलज्ञानी भगवंतों से माता के समान है, गुरुदेव पिता तुल्य है, समान हैं । इनके सिवाय संसार में सब माया जाल है ।
मुझे अरिहंत भगवान् का शरण हो, सिद्ध भगवंतों का शरण हो, साधु महात्माओं प्ररूपित धर्म का शरण हो । श्री जिनधर्म मेरी अन्य श्रमण एवं साधर्मी मेरे सहोदर बन्धु के
Jain Education International
१२९
For Private & Personal Use Only
+-+-+-+-+
www.jainelibrary.org