Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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शूलपाणि यक्ष द्वारा घोर उपसर्ग
-rare...... १५७
नष्ट कर देता है । पुजारी भी शाम को अपने घर चला जाता है। इसलिये आपको इस देवालय में नहीं रहना चाहिये।
लोगों ने भगवान् को दूसरा स्थान बताया। किन्तु प्रभु ने दूसरे स्थान पर रहना अस्वीकार कर, यक्षायतन की ही याचना की। अनुमति प्राप्त कर के प्रभु यक्षायतन के एक कोने में प्रतिमा धारण कर के ध्यानस्थ हो गए।
शूलपाणि यक्ष द्वारा घोर उपसर्ग
इन्द्रशर्मा पुजारी ने धूप-दीप करने के बाद अन्य यात्रियों को हटा दिया और भगवान् से कहा-“महात्मन् ! अब आप भी यहाँ से किसी अन्यत्र स्थान चले जाइये । यह देव बड़ा क्रूर है । जो यहाँ रात रहता है, वह जीवित नहीं रहता।" प्रभु तो ध्यानस्थ थे। पुजारी अपनी बात उपेक्षित जान कर चला गया।
यक्ष ने विचार किया--'यह कोई गर्विष्ठ मनुष्य है। गांव के लोगों ने और पुजारी ने बारबार समझाया, परन्तु यह अपने घमण्ड में ही चूर रहा । ठीक है अब मेरी शक्ति भी देख ले।'
___व्यन्तर ने अट्टहास्य किया। भयंकर रौद्रहास्य से दिशाएँ गुंज उठी--जैसे आकाश फट पड़ा हो और नक्षत्र-मंडल टूट पड़ा हो । ग्राम्यजन काँप उठे। उन्हें विश्वास हो गया कि वह मुनि, यक्ष के कोप का पात्र बन कर मारा गया होगा। यक्ष का अट्टहास्य भी व्यर्थ गया। भगवान पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। प्रथम प्रयोग व्यर्थ जाने पर यक्ष ने एक मत्त-गजेन्द्र का रूप धारण कर प्रभु को पाँवों से रोंदा और दांतों से ठोक कर असह्य वेदना उत्पन्न की। फिर एक विशाल पिशाच का रूप धारण कर भगवान् के शरीर को नोचा । तत्पश्चात् भयंकर विषधर का रूप धर कर भगवान् के शरीर को आँटे लगा कर कसा और मस्तक, नेत्र, नासिका, ओष्ट, पीठ, नख और शिश्न पर डस कर घोर असह्यवेदना उत्पन्न की। फिर भी प्रभु अडिग एवं ध्यान-मग्न ही रहे । यक्ष थका। उसे विचार हुआ कि यह तो कोई महान् आत्मा है । उपयोग लगाने पर भगवान् की भव्यता ज्ञात हुई । इतने में सिद्धार्थ देव--जिसे शक्रेन्द्र ने भगवान् की सेवा के लिये नियुक्त किया था--कहीं से आया और शलपाणि को फटकारा--
"हे दुर्मति ! तूने यह क्या किया ? ये होने वाले तीर्थंकर भगवान् हैं । इनकी
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