Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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गृहस्थावस्था का त्यागमय जीवन
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करूँगा । मेरी
राज्य और भोगविलास
"नहीं, बन्धुवर ! मैं तो धर्मसाधना ही में रुचि नहीं है । आप ज्येष्ठ हैं, पिता के स्थान पर हैं। मुझ पर राज्य का भार आ नहीं सकता। मुझे तो आप निग्रंथ प्रव्रज्या स्वीकार करने की अनुमति दीजिये । मैं यही चाहता हूँ ।'
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"भाई ! यह क्या कहते हो तुम ? माता-पिता के वियोग का असह्य दुःख तो भोग ही रहे हैं। इस दुःख में तुम फिर वृद्धि करने पर तुले हुए हो ? नहीं, तुम अभी हमारा त्याग नहीं कर सकते । तुम्हें ऐसा नहीं करने दूंगा । में जानता हूँ कि तुम स्वभाव से ही विरक्त हो । तुम्हारे हृदय में मोह-ममता नहीं है और तुम माता-पिता के स्नेह वशउन्हें आघात नहीं लग, इस विचार से अब तक घर में रहे, तो हमारे लिये कुछ भी नहीं ? हम से तुम्हारा कोई स्नेह-सम्बन्ध नहीं ? नहीं, हम तुम्हें अभी नहीं जाने देंगे । मैं जानता हूँ कि तुम मोह-ममता से मुक्त लोकोत्तर आत्मा हो, परन्तु हम सब तो वैसे नहीं हैं । हमारे हृदय से स्नेह की धारा सूखी नहीं है । कुछ हमारा विचार भी करो" - नन्दीवर्धनजी ने कंठ से गद्गद् होते हुए कहा ।
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'महानुभाव ! मोह बढ़ाना नहीं, घटाना हितकारी होता है । मैं आपको या परिवार के किसी भी सदस्य को खेदित करना नहीं चाहता, परंतु वियोग-दुःख तो कभी-न-कभी भोगना ही पड़ता है- पहले या पीछे । स्वतः छोड़ने में जो लाभ है, वह बरबस छोड़ने में नहीं । जो समय व्यतीत हो रहा है वह व्यर्थ जा रहा है । इसे सार्थक करना ही चाहिये । शाश्वत सुख की प्राप्ति का सर्वाधिक उपाय मनुष्य-भव में ही हो सकता है। अतएव अब विलम्ब करना उचित नहीं होगा " - विरक्त महात्मा वर्धमानजी ने कहा ।
- "नहीं, भाई ! अभी नहीं । कम से कम दो वर्ष तो हमारे लिये दीजिये । हम तुम से अधिक नहीं माँगते । दो वर्ष के बाद तुम निग्रंथ बन जाना । माता पिता के लिए अबतक रुके, तो दो वर्ष हमारे लिये भी सही । इन दो वर्षों में हम अपनी आत्मा को तुम्हारा वियोग सहने योग्य बना लेंगे। वैसे तुम्हारे लिये यह घर और सुख-सामग्री भी बन्धनकारक नहीं है । तुम तो स्वभाव से ही साधु जैसे हो " - नन्दीवर्धनजी ने आग्रहपूर्वक
कहा ।
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भ० श्रीवर्धमान ने अवधिज्ञान का उपयोग लगाया । उन्हें दो वर्ष का काल और गृहस्थवास में रहने योग्य कर्म का उदय लगा। वे मान गए। किंतु उन्होंने उसी समय यह अभिग्रह कर लिया कि --
"मैं गृहस्थवास में भी ब्रह्मचर्य का पालन करूँगा । सचित्त जल का सेवन नहीं
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