Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उपसर्गों का प्रारम्भ और परम्परा
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जब तक भगवान् ओझल नहीं हुए तब तक वे देखते रहे और फिर लौट कर स्वस्थान चले गये । भगवान् वहाँ से विहार कर 'कुर्मार' ग्राम पधारे और ध्यानारूढ़ हो गए। भगवान् उत्कृष्ट संयम, उत्कृष्ट समाधि, उत्कृष्ट त्याग, उत्कृष्ट तप, उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य, उत्तरोत्तर समिति गुप्ति, शांति, संतोष आदि से मोक्ष साधना में आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे हैं ।
उपसर्गों का प्रारम्भ और परम्परा
दीक्षा की प्रथम संध्या को कुर्मा र ग्राम के बाहर भगवान् सूखे हुए ढूंठ के समान अडॉल खड़े रह कर ध्यान करने लगे। उस समय एक कृषक अपने बैलों को खत से लाया
और जहां भगवान कायोत्सर्ग किये खड़े थे, वहाँ चरने के लिए छोड़ कर, गायें दुहने के लिए गाँव में गया । बैठ चरते-चरते बन में चले गये। किसान (ग्वाला) लौट कर आया
और अपने बैलों को वहाँ नहीं देखा. तो भगवान् से पूछा-“मेरे बैल यहाँ चर रहे थे, वे कहाँ हैं ?'' भगवान् तो ध्यानस्थ थे, सो मौन ही रहे । ग्वाले ने वन में खोज की, परन्तु बैल नहीं मिले । रातभर भटकने के बाद वह लौट कर उसी स्थान पर आया, तो अपने बैलों को भ० महावीर के पास बैठे जुगाली करते देखा । बैल रातभर चर कर लौटे और उसी स्थान पर बैठे जहाँ उन्हें छोड़ा था। प्रभात का समय था । ग्वाले ने सोचा-'मेरे बैल इसी ठग ने छुपा दिये थे।' अब यह इन्हें यहाँ से भगा कर ले जाने वाला था । यदि मै यहाँ नहीं आता तो मेरे बैल नहीं मिलते । वह रातभर खोजता रहा था और थक भी गया था। क्रोधावेश में हाथ में रही हुई रस्सी से वह भगवान् को मारने के लिये झपटा। उस समय प्रथम स्वर्ग के अधिपति शकेन्द्र ने विचार किया-“दीक्षा के बाद प्रथम दिन
* ग्रन्थकार लिखते हैं कि भगवान् के दीक्षित हो कर विहार करने के बाद उनके पिता का मित्र 'सोम' नाम का वृद्ध ब्राह्मण भगवान् के पास आया और नमस्कार कर के बोला-"स्वामिन् ! आपने वर्षीदान से मनुष्यों का दारिद्र दूर कर दिया। परन्तु मैं दुर्भागी तो उस महादान से वञ्चित ही रह गया। भगवन ! मैं जन्म से ही दरिद्र हूँ । मूझ पर कृपा कर के कुछ दीजिये । मेरी पत्नी ने मेरा तिरस्कार कर के आपके पास भेजा है।"भगवान् ने कहा-"विप्र! मैं तो अब निष्परिग्रही एवं निःसंग हूँ। फिर भी तू मेरे कन्धे पर रहे हुए वस्त्र का अर्धभाग ले जा।" ब्राह्मण आधा वस्त्र ले कर प्रसन्न होता हुआ लौट गया। इसका उल्लेख न तो आचारांग सूत्र में है-जहाँ चरित्र वर्णन है-न कल्पसूत्र में ही है। बाद के ग्रन्थों में है और आगम-विरुद्ध है।
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