Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भगवान् की उग्र साधना
भगवान की उग्र साधना दीक्षा लेते समय भगवान् के कन्धे पर इन्द्र ने जो देवदुष्य (वस्त्र) रखा था, उसे भगवान् ने वैसे ही पड़ा रहने दिया। उन्होंने सोचा भी नहीं कि यह वस्त्र शीतकाल में सर्दी से बचने के लिये मैं ओढूंगा, या किसी समय किसी भी प्रकार से काम में लूंगा । वे तो परीषहों को धैर्य एवं शान्तिपूर्वक सहन करने के लिए तत्पर रहते थे। इन्द्रप्रदत्त वस्त्र का उन्होंने पूर्व के तीर्थंकरों द्वारा आचरित होने (“अणुधम्मियं") से ग्रहण किया था। इसका प्रमुख कारण तीर्थ--साधु-साध्वियों में वस्त्र का सर्वथा निषेध न हो जाय और भव्यजीव प्रव्रज्या के वंचित नहीं रह जाय, इसलिये मौनपूर्वक स्वीकार किया था। वह इन्द्रप्रदत्त वस्त्र भगवान् के स्कन्ध पर एक वर्ष और एक मास से अधिक रहा, इसके बाद उसका त्याग हो गया+ । वे सर्वथा निर्ववस्त्र विचरने लगे।
भगवान् ईर्यासमिति युक्त पुरुष-प्रमाण मार्ग देखते हुए चलते । मार्ग में बालक आदि उन्हें देख कर डरते और लकड़ो-पत्थर आदि से मारने लगते तथा रोते हुए भाग जाते ।
भगवान् तृण का तीक्ष्ण स्पर्श, शीत उष्ण, डाँस-मच्छर के डंक आदि अनेक प्रकार के परीषह सहते हुए समभावपूर्वक विचरने लगे। कभी गृहस्थों के संसर्ग वाले स्थान में रहना होता, तब कामातुर स्त्रियाँ भोग की प्रार्थना करती, परन्तु भगवान् कामभोग को बन्धन का कारण जान कर ब्रह्मचर्य में दृढ़ रह कर ध्यानस्थ हो जाते।
भगवान् गृहस्थों से सम्पर्क नहीं रखते थे और न वार्तालाप करते, अपितु ध्यानमग्न रहते । यदि गृहस्थ लोग भगवान् से बात करना चाहते, तो भी भगवान् मौन रह कर चलते रहते । यदि कोई भगवान् की प्रशंसा करता, तो प्रपन्न नहीं होते और कोई निन्दा करता, कठोर वचन बोलता या ताड़ना करता, तो वे उस पर कोप नहीं करते । असह्य परीषह उत्पन्न होने पर वे धीर-गंभीर रह कर शांतिपूर्वक सहन करते । लोगों द्वारा मनाये जाने वाले उत्सवों, गीत-नृत्यों और राग-रंग के प्रति भगवान् रुचि नहीं रखते और न मल्लयुद्ध या विग्रह सम्बन्धी बातें सुनने देखने की इच्छा करते । यदि स्त्रियाँ मिल कर परस्पर कामकथा करती, तो भगवान् वैसी मोहक कथाएँ सुनने में मन नहीं लगाते, क्योंकि भगवान् ने
+ ग्रन्थ में उल्लेख है कि वह दरिद्र ब्राह्मण अर्ध वस्त्र ले कर एक बुनकर के पास, उस वस्त्र के किनारे बनाने के लिये लाया, तो बुनकर ने कहा कि यदि तू बचा हुआ आधा वस्त्र फिर ले आवे तो मैं उसे जोड़ कर ठीक कर दूं। उसका मूल्य एक लाख स्वर्णमद्रा मिलेगी। उसमें से आधी तेरी और आधी मेरी होगी " ब्राह्मण लौटा और प्रभु के पीछे फिरने लगा। जब आधा वस्त्र गिरा, तो उसने उठा लिया। उसे जोड कर बेचा और प्राप्त एक लाख सोने के सिक्के दोनों ने आधे-आधे लिये। ब्राह्मण की दरिद्रता मिट गई।
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