Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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राजकुमारी यशोदा के साथ लग्न
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महावीर से सम्बन्ध करने के लिये, महाराजा सिद्धार्थ की सेवा में उपस्थित हुए । महाराजा ने मन्त्रियों का सत्कार किया और कहा-"हम सब महावीर को विवाहित देखना चाहते हैं और राजकुमारी यशोदा भी सर्वथा उपयुक्त है । परन्तु महावीर निर्विकार है । वह लग्न करना स्वीकार कर लें, तो हमें प्रसन्नतापूर्वक यह सम्बन्ध स्वीकार होगा । मैं प्रयत्न करता हूँ। आप मेरा आतिथ्य स्वीकार कीजिए।'
महाराजा ने महावीर के कुछ मित्रों को बुलाया और उन्हें महावीर को लग्न करने के लिए अनुमत करने का कहा । मित्रों ने महावीर से आग्रह किया तो उत्तर मिला;--
"मित्र ! आप मेरे विचार जानते ही हैं । वस्तुतः विषय-भोग सुज्ञजनों के लिये रुचिकर नहीं होते । पौद्गलिक भोग जब तक नहीं छूटते, तब तक आत्मानन्द की प्राप्ति नहीं होती। भोग में मेरी रुचि नहीं है।"
मित्रों ने कहा-“हम आपकी रुचि जानते हैं। किन्तु आप लौकिक दृष्टि से भी देखिये । समस्त मानव-समाज की रुचि के अनुसार ही आपके माता-पिता की रुचि है। उनकी इच्छा पूरी करने के लिये-अरुचि होते हुए भी आपको मान लेना चाहिये । इससे उनको और हमको प्रसन्नता होगी।"
“मित्रों ! आपके मुंह से एसी बातें मोह के विशेष उदब से ही निकल रही है । संसार पुद्गलानन्द में ही रच-पच रहा है। पुद्गलानन्दीपन का दुष्परिणाम आँखों से देखता और अनुभव करता हुआ भी नहीं समझता और आत्मानन्द की ओर से उदासीन रहता है । मेरी रुचि इधर नहीं है । मैं तो इसी समय संसार-त्याग की भावना रखता है किन्तु मैने माता-पिता के जीवित रहते दीक्षा नहीं लेने का संकल्प किया है। मेरे माता-पिता को मेरे वियोग का दुःख नहीं हो-इस भावना के कारण ही मैं रुका हुआ हूँ। अब आप व्यर्थ ही................
___ हठात् मातेश्वरी प्रकट हुई । प्रभु तत्काल उठ खड़े हुए । मातेश्वरी को सिंहासन पर बिठाया और आने का प्रयोजन पूछा । मातेश्वरी ने कहा
__ “पुत्र ! हमारे पुण्य के महान् उदय स्वरूप ही तुम्हारा योग मिला है। तुम्हारे जैसा परम विनीत और अलौकिक पुत्र पा कर हम सब धन्य हो गए हैं । हमें बहुत प्रसन्नता है। तुमने हमें कभी अप्रसन्न नहीं किया। किन्तु तुम्हारी संसार के प्रति उदासीनता देख कर हम दुःखी हैं । आज मैं तुमसे याचना करने आई हूँ कि तुम विवाह करने की अनुमति दे कर मेरी चिन्ता हर लो। हम सब की लूटी हुई प्रसन्नता लोटाना तुम्हारा कर्तव्य है।
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