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________________ राजकुमारी यशोदा के साथ लग्न १४१ ၀ ၆ ၈၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀ ၀ महावीर से सम्बन्ध करने के लिये, महाराजा सिद्धार्थ की सेवा में उपस्थित हुए । महाराजा ने मन्त्रियों का सत्कार किया और कहा-"हम सब महावीर को विवाहित देखना चाहते हैं और राजकुमारी यशोदा भी सर्वथा उपयुक्त है । परन्तु महावीर निर्विकार है । वह लग्न करना स्वीकार कर लें, तो हमें प्रसन्नतापूर्वक यह सम्बन्ध स्वीकार होगा । मैं प्रयत्न करता हूँ। आप मेरा आतिथ्य स्वीकार कीजिए।' महाराजा ने महावीर के कुछ मित्रों को बुलाया और उन्हें महावीर को लग्न करने के लिए अनुमत करने का कहा । मित्रों ने महावीर से आग्रह किया तो उत्तर मिला;-- "मित्र ! आप मेरे विचार जानते ही हैं । वस्तुतः विषय-भोग सुज्ञजनों के लिये रुचिकर नहीं होते । पौद्गलिक भोग जब तक नहीं छूटते, तब तक आत्मानन्द की प्राप्ति नहीं होती। भोग में मेरी रुचि नहीं है।" मित्रों ने कहा-“हम आपकी रुचि जानते हैं। किन्तु आप लौकिक दृष्टि से भी देखिये । समस्त मानव-समाज की रुचि के अनुसार ही आपके माता-पिता की रुचि है। उनकी इच्छा पूरी करने के लिये-अरुचि होते हुए भी आपको मान लेना चाहिये । इससे उनको और हमको प्रसन्नता होगी।" “मित्रों ! आपके मुंह से एसी बातें मोह के विशेष उदब से ही निकल रही है । संसार पुद्गलानन्द में ही रच-पच रहा है। पुद्गलानन्दीपन का दुष्परिणाम आँखों से देखता और अनुभव करता हुआ भी नहीं समझता और आत्मानन्द की ओर से उदासीन रहता है । मेरी रुचि इधर नहीं है । मैं तो इसी समय संसार-त्याग की भावना रखता है किन्तु मैने माता-पिता के जीवित रहते दीक्षा नहीं लेने का संकल्प किया है। मेरे माता-पिता को मेरे वियोग का दुःख नहीं हो-इस भावना के कारण ही मैं रुका हुआ हूँ। अब आप व्यर्थ ही................ ___ हठात् मातेश्वरी प्रकट हुई । प्रभु तत्काल उठ खड़े हुए । मातेश्वरी को सिंहासन पर बिठाया और आने का प्रयोजन पूछा । मातेश्वरी ने कहा __ “पुत्र ! हमारे पुण्य के महान् उदय स्वरूप ही तुम्हारा योग मिला है। तुम्हारे जैसा परम विनीत और अलौकिक पुत्र पा कर हम सब धन्य हो गए हैं । हमें बहुत प्रसन्नता है। तुमने हमें कभी अप्रसन्न नहीं किया। किन्तु तुम्हारी संसार के प्रति उदासीनता देख कर हम दुःखी हैं । आज मैं तुमसे याचना करने आई हूँ कि तुम विवाह करने की अनुमति दे कर मेरी चिन्ता हर लो। हम सब की लूटी हुई प्रसन्नता लोटाना तुम्हारा कर्तव्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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