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________________ १४० तीर्थंकर चरित्र - भाग ३ Feene जिनेश्वर का कोई गुरु हो ही नहीं सकता । वे स्वयं जन्मजात गुरु होते हैं और संसार के बड़े-बड़े उद्भट विद्वान उनके शिष्य होते हैं । मैं जाऊँ और अध्यापक का भ्रम मिटाऊँ । इन्द्र ब्राह्मण का रूप बना कर विद्यालय में आया । प्रभु को महोत्सवपूर्वक अध्यापक के साथ विद्यालय में लाया गया था । इन्द्र ने स्वागतपूर्वक प्रभु को अध्यापक के आसन पर बिठाया । अध्यापक चकित था कि यह प्रभावशाली महापुरुष कौन है जो विद्याभवन के अधिपति के समान अग्रभाग ले रहा है । इतने में इन्द्र ने प्रभु को प्रणाम कर के व्याकरण सम्बन्धी जटिल प्रश्न पूछे । उन प्रश्नों के उत्तर सुन कर विद्याचार्य चकित रह गया । अब वह समझ गया कि बालक महावीर तो अलौकिक आत्मा है । ये तो मेरे गुरु होने के योग्य हैं । देवेन्द्र ने भी उपाध्याय से कहा -- " महाशय ! आप इनकी वय की ओर ध्यान मत दीजिये । ये ज्ञान के सागर हैं और भविष्य में लोकनाथ सर्वज्ञ - सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवान् होंगे ।" कुलपति नत मस्तक हो गया और इन्द्र के प्रश्नों के प्रभु ने जो उत्तर दिये, उस से उन्होंने व्याकरण की रचना कर के उसे 'ऐन्द्र व्याकरण' के नाम से प्रचारित किया । इन्द्र लौट गए और कुलपति भगवान् को ले कर महाराजा सिद्धार्थ के समीप आये । निवेदन किया --" महाराज ! आपके सुपुत्र को मैं क्या पढ़ाऊँ। में स्वयं इनके सामने बौना हूँ और saat शिष्य होने योग्य हूँ । अब इन्हें किसी प्रकार की विद्या सिखाने की आवश्यकता नहीं रही ।" सिद्धार्थं नरेश अत्यन्त प्रसन्न हुए । प्रभु के गर्भ में आने पर महारानी को आये हुए सपने और इन्द्र द्वारा किये हुए जन्मोत्सव तथा ऐश्वर्यादि में आई हुई अभिवृद्धि का उन्हें स्मरण हुआ । वे समझ गए कि यह हमारा कुलदीपक तो विश्वविभूति है, विश्वोत्तम महापुरुष है और गुरुओं का गुरु है । धन्य भाग हमारे | राजकुमारी यशोदा के साथ लग्न Jain Education International कककककक राजकुमार प्रभु महावीर यौवन वय को प्राप्त हुए। उनका उत्कृष्ट रूप एवं अलौकिक प्रभा देखने वालों का मन बरबस खींच लेती । यौवनावस्था में संसारी जीवों का मन, वासना से भरपूर रहता है, परंतु भगवान् तो निर्विकार थे। उनके मन में विषय-वासना का वास नहीं था । फिर भी उदयभाव से प्रभावित मनुष्य उन्हें उत्कृष्ट भोग-पुरुष देखना चाहते थे । माता-पिता की इच्छा थी कि शीघ्र ही उनका पुत्र विवाहित हो जाय और उनके घर में कुलवधू आ जाय । कई राजाओं के मन में राजकुमार महावीर को अपना जामाता बनाने की इच्छा हुई । इतने ही में राजा समरवीर के मन्त्रीगण अपनी राजकुमारी यशोदा का i For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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