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शिष्य नहीं, गुरु होने के योग्य
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उन्होंने साथियों को धैर्य बँधाया और स्वयं सर्प के निकट जा कर और रस्सी के समान पकड़ दूर ले जा कर छोड़ दिया। महावीर की निर्भयता एवं साहसिकता देख कर सभी राजकुमार लज्जित हुए।
__ अब वृक्ष पर चढ़ने की स्पर्धा प्रारम्भ हुई। शर्त यह थी कि विजयी राजपुत्र, पराजित की पीठ पर सवार हो कर, निर्धारित स्थान पर पहुँचे । वह देव भी एक राजपुत्र का रूप धारण कर उस खल में सम्मिलित हो गया। महावीर सब से पहले वृक्ष के अग्रभाग पर पहुंच गए और अन्य कुमार बीच में ही रह गए। देव को तो पराजित होना ही था, वह सब से नीचे रहा । विजयी महावीर उन पराजित कुमारों की पीठ पर सवार हुए। अन्त में देव की बारी आई । वह देव हाथ-पाँव भूमि पर टीका कर घोड़े जैसा हो गया। महावीर उसकी पीठ पर चढ़ कर बैठ गए । देव ने अपना रूप बढ़ाया। वह बढ़ता ही गया। एक महान् पर्वत से भी अधिक ऊँचा। उनके सभी अंग बढ़ कर विकराल बन गए। मुंह पाताल जैसा एक महान् खड्डा, उसमें तक्षक नाग जैसी लपलपाती हुई जिह्वा, मस्तक के बाल पीले और खोले जैसे खड़े हुए, उसकी दाढ़ें करवत के दाँतों के समान तेज, आँखें अंगारों से भरी हुई सिगड़ी के समान जाज्वल्यमान और नासिका के छेद पर्वत की गुफा के समान दिखाई देने लगे । उनकी भकुटी सपिणी के समान थी । वह भयानक रूपधारी देव बढ़ता ही गया। उसकी अप्रत्याशित विकरालता देख कर महावीर ने ज्ञानोपयोग लगाया । वे समझ गए कि यह मनुष्य नहीं, देव है और मेरी परीक्षा के लिये ही मानवपुत्र बन कर मेरा वाहन बना है । उन्होंने उसकी पीठ पर मुष्ठि-प्रहार किया, जिससे देव का बढ़ा हुआ रूप तत्काल वामन जैसा छोटा हो गया। देव को इन्द्र की बात का विश्वास हो गया। उसने महावीर से क्षमा-याचना की और नमस्कार कर के चला गया ।
शिष्य नहीं, गुरु होने के योग्य
महावीर आठ वर्ष के हुए तो माता-पिता ने उन्हें पढ़ने के लिये कलाचार्य के विद्याभवन में भजा । उस समय सौधर्मेन्द्र का आसन चलायमान हुआ। उन्होंने ज्ञानोपयोग से जाना कि “श्री महावीर कुमार के माता-पिता, अपने पुत्र की ज्ञान-गरिमा से परिचित नहीं होने ने कारण उन्हें पढ़ने के लिए कला-भवन भेज रहे हैं । तीन ज्ञान के स्वामी को वह अल्पज्ञ कलाचार्य क्या पढ़ाएगा । वह उनका गुरु नहीं, शिष्य होने योग्य है। उन द्रव्य
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