Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र-भाग ३ कककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककर
वत्स ! मैं जानती हूँ कि तुम स्वभाव से ही विरक्त हो और संसार का त्याग कर निग्रंथ बनना चाहते हो । किन्तु हम पर अनुकम्पा कर के गृहवास में रहे हो । तुम्हारा एकाकी रहना हमारी चिन्ता का कारण बन गया है । मैं तुमसे आग्रह पूर्वक अनुरोध करती हूँ कि विवाह करने की स्वीकृति दे कर हमें कृतार्थ करो।"
माता के आग्रह पर भगवान् विचार में पड़ गये। उन्होंने सोचा-यह कैसा आग्रह है । इसे स्वीकार किया जा सकता है ? क्या होगा-मेरी भावना का? उन्होंने ज्ञानोपयोग से अपना भविष्य जाना । उन्हें ज्ञात हुआ कि भोग योग्य कर्म उदय में आने वाले हैं । इनका भोग अनिवार्य है। उन्होंने माता को स्वीकृति दे दी। माता-पिता के हर्ष का पार नहीं रहा।
राजकुमारी यशोदा के साथ उनके लग्न हो गए और भगवान् अलिप्त भावों से उदय कर्म को भोग कर क्षय करने लगे । यथासमय एक पुत्री का जन्म हुआ, जिसका नाम 'प्रियदर्शना' रखा गया।
महाराज सिद्धार्थ और महारानी त्रिशलादेवी भ. पार्श्वनाथजी की परम्परा के श्रावक थे । वे श्रावक के व्रतों का पालन करते रहे । यथासमय अनशन कर के अच्युत स्वर्ग में देव हुए। वहाँ का देवायु पूर्ण कर वे महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य होंगे और निग्रंथ-प्रव्रज्या स्वीकार कर मोक्ष प्राप्त करेंगे । माता-पिता के स्वर्गवास के समय भगवान् २० वर्ष के थे।
गृहस्थावस्था का त्यागमय जीवन
भगवान् ने गर्भावस्था में प्रतिज्ञा की थी कि जब तक माता-पिता जीवित रहेंग, तब तक निग्रंथ-दीक्षा नहीं लूंगा । माता-पिता का स्वर्गवास हो जाने पर प्रतिज्ञ. पूर्ण हो गई । भगवान् ने अपने ज्येष्ठ-भ्राता महाराजा श्री नन्दीवर्धनजी से निवेदन किया;--
"बन्धुवर ! जन्म के साथ मृत्यु लगी हुई है । जो जन्म लेता है, वह अवश्य ही मरता है। इसलिये माता-पिता के वियोग से शोकाकुल रहना उचित नहीं है । धैर्य धारण कर के धर्म साधना कर के पुनर्जन्म की जड़ काटना ही हितावह है । शोक तो सत्वहान काय र जीव करते हैं । आप स्वस्थ होवें और संतोष धारण करें।"
___ नन्दीवर्धनजी स्वस्थ हुए और मन्त्रियों को आदेश दिया;-"भाई वर्धमान के राज्याभिषेक का प्रबन्ध करो।"
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