Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थङ्कर चरित्र - भाग ३
1
इस अवसर्पिणी काल के ऋषभदेव आदि तीर्थंकर, इनके पूर्व के अनन्त तीर्थंकर और ऐरवत क्षेत्र तथा महाविदेह के सभी तीर्थंकर भगवंतों को मैं नमस्कार करता हूँ। तीर्थंकर भगवंतों को किया हुआ नमस्कार, प्राणियों का संसार परिभ्रमण काटने वाला तथा बोधि देने वाला होता है । मैं सिद्ध भगवंतों को नमस्कार करता हूँ, जिन्होंने ध्यानरूपी अग्नि से करोड़ों भवों के संचित कर्मरूपी काष्ठ को भस्म कर दिया है । पाँच प्रकार के आचार के पालन करनेवाले आचार्यों को मैं नमस्कार करता हूँ, जो भवच्छेद के लिये पराक्रम करते हुए निर्ग्रथ प्रवचन को धारण करते हैं। मैं उन उपाध्याय महात्माओं को नमस्कार करता हूँ जो सर्व श्रुत को धारण करते हैं और शिष्यों को ज्ञान-दान देते हैं । पूर्व के लाखों भवों में बाँधे हुए पाप कर्म को नष्ट करने वाले शील -- शुद्धाचार को धारण करने वाले साधुमहात्माओं को नमस्कार करता हूँ ।
मैं सावद्य योग और बाह्य और आभ्यंतर उपधि को मन वचन काया से जीवनपर्यंत वोसिराता हूँ। मैं यावज्जीवन चारों प्रकार के आहार का त्याग करता हूँ और चरम उच्छ्वास तक इस देह को भी वोसिराता हूँ ।"
दुष्कर्मों की गर्हणा, प्राणियों से क्षमापना शुभभावना, चार शरण, नमस्कार स्मरण और अनशन - इस तरह छह प्रकार की आराधना करके नन्दन मुनिजी, धर्माचार्य, साधुओं और साध्वियों को खमाने लगे । साठ दिन तक अनशन व्रत का पालन करके और पच्चीस लाख वर्ष का आयु पूर्ण करके श्री नन्दन मुनिजी प्राणत नाम के दसवें देवलोक के पुष्पोत्तर विमान की उपपात शय्या में उत्पन्न हुए । अन्तर्मुहूर्त में ही वे महान् ऋद्धि सम्पन्न देव हो गए ।
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देवदुष्य - दैविक वस्त्र को हटा कर शय्या में बैठे हुए उन्होंने देखा तो आश्चर्य में पड़ गए । उन्होंने सोचा -- "अरे, मैं कहा हूँ ? यह देव- विमान, यह ऋद्धि-सम्पदा मुझे कैसे प्राप्त हो गई ? मेरी किस तपस्या का फल है - यह ?" उन्होंने अवधिज्ञान से अपना पूर्वभव और अपनी साधना देखी । उन्होंने उत्साहपूर्वक कहा - " अहो, जिन-धर्म का कैसा प्रभाव है ? इस परमोत्तम धर्म की साधना से ही मुझ यह दिव्यऋद्धि प्राप्त हुई है ।" इतने में उनके अधिनस्थ देव वहां आकर उपस्थित हुए और हर्षोत्फुल्ल हो, हाथ जोड़ कर कहने लगे; - - " हे स्वामी ! आपकी जय हो, विजय हो । आप सदैव आनन्दित रहें | आप हमारे स्वामी हैं, रक्षक हैं । हम आपके आज्ञा-पालक सेवक हैं। आप यशस्वी हैं । यह आपका विमान है । ये उपवन हैं, यह वापिका है, यह सुधर्मा सभा और सिद्धायतन है । आप सभा में पधारिये । हम आपका अभिषेक करेंगे ।"
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