Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थकर चरित्र भाग ३
किकककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककका
को राज्यभार दे कर प्रवजित हो गए। उन्होंने कोटि वर्ष तक उग्र तप किया और चौरासी लाख पूर्व का आयु भोग कर महाशुक्र नामक देवलोक के सर्वार्थ विमान में देव हुए ।
नन्दनमुनि की आराधना और जिन नामकर्म का बन्ध
प्रियमित्र चक्रवर्ती का जीव महाशुक्र देवलोक से च्यव कर भरतक्षेत्र की छत्रा नगरी में जितशत्रु राजा की भद्रा रानी के गर्भ से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ । उसका नाम 'नन्दन' दिया गया । यौवनवय में पिता ने राज्यभार सौंप कर निग्रंथ-प्रव्रज्या स्वीकार की । नन्दन नरेश, इन्द्र के समान राज्य-वैभव भोगने लगे और प्रजा पर न्याय-नीति से शासन करने लगे । जन्म से चौवीस लाख वर्ष व्यतीत होने पर विरक्त हो कर पोट्टिला. चार्य से निग्रंथ-प्रव्रज्या स्वीकार की और निरन्तर मासखमण की तपस्या करने लगे। निर्दोष संयम, उत्कृष्ट तप एवं शुभ ध्यान से वे अपनी आत्मा को प्रभावित करने लगे। इस प्रकार उच्चकोटि की आराधना करते हुए शुभ भावों की प्रकृष्टता में मुनिराज ने तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया। आयु का अन्त निकट जान कर महात्मा श्री नन्दनमुनिजी अन्तिम आराधना करने लगे;---
"काल विनय आदि आठ प्रकार के ज्ञानाचार में मुझसे कोई अतिचार लगा हो, तो मैं मन, वचन और काया से उस दोष की निन्दा करता हूँ। निःशंकित आदि आठ प्रकार के दशनाचार में मझसे कोई दोष लगा हो, तो मैं उसकी गर्दा करता हूँ। मैने मोहवश अथवा लोभ के कारण सूक्ष्म अथवा बादर जीवों की हिंसा की हो, तो उस दुष्कृत्य को मैं वासिराना हूँ । हास्य, भय, क्रोध या लोभादि से मैने मृषावाद पाप का सेवन किया, उम पाप का त्याग कर के प्रायश्चित्त करता हूँ। राग-द्वेषवश थोड़ा या बहुत अदत्त ग्रहण किया, उस सब का त्याग कर के शुद्ध होता हूँ। पहले मैने तिर्यंच, मनुष्य और देव संबंधी मैथन का सेवन मन-वचन और काया से किया, मैं तीन करण तीन योग से उस पाप का त्याग करता हूँ। लोभ के वशीभूत हो कर मैने पूर्व अवस्था में धन-धान्यादि सभी प्रकार के परिग्रह का सेवन किया । उस सब पाप से मैं सर्वथा पृथक् होता हूँ । स्त्री. पुत्र मित्र, परिवार, द्विपद, चतुष्पद, स्वर्ण-रत्नादि तथा राज्यादि में आसक्त हुआ, मेरा वह पाप सर्वथा मिथ्या हो जाओ। मैने रात्रि भोजन किया हो, तो उस पाप से मेरी आत्मा सर्वथा पृथक् हो जाय । क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष, क्लेश, पिशुनता, परनिन्दा, अभ्याख्यान, पाप में रुचि, धर्म में अरुचि आदि पापों से मैने चारित्राचार को दूषित किया
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