Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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त्रिपृष्ट वासुदेव भव
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है, किन्तु इन्द्रानी को भी पराजित करने वाली में महान् भाग्यशाली हूँ जो मुझे ऐसा अलौकिक
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ऐसी अपूर्व सुन्दरी प्राप्त होना दुर्लभ है । स्त्री - रत्न प्राप्त हुआ है ।"
राजा इस प्रकार सोच ही रहा था कि राजकुमारी ने पिता को प्रणाम किया । राजा ने उसे अपने निकट बिठाई और उसका आलिंगन और चुम्बन कर के साथ में रहे हुए वृद्ध कंचुकी के साथ पुनः अन्तःपुर में भेज दी । राजा उस पर मोहित हो चुका था । वह यह तो समझता ही था कि पुत्री पर पिता की कुबुद्धि होना महान् दुष्कृत्य है । यदि मैं अपनी दुर्वासना को पूरी करूँगा, तो संसार में मेरी महान् निन्दा होगी । वह न तो अपनी वासना के वेग को दबा सकता था और न लोकापवाद की ही उपेक्षा कर सकता था । उसने बहुत सोच-विचार कर एक मार्ग निकाला ।
राजा ने एक दिन राजसभा बुलाई। मंत्री - मण्डल के अतिरिक्त प्रजा के प्रमुख व्यक्तियों को भी बुलाया। सभी के सामने उसने अपना यह प्रश्न उपस्थित किया; - " मेरे इस राज में, नगर में, गाँव में, या किसी भी स्थान पर कोई रत्न उत्पन्न हो, तो उस पर किसका अधिकार होना चाहिए ?'
"
- " महाराज ! आपके राज में जो रत्न उत्पन्न हो उसके स्वामी तो आप ही हैं, दूसरा कोई भी नहीं' - मन्त्री मण्डल और उपस्थित सभी सभाजनों ने एक मत से उत्तर दिया ।
" आप पूरी तरह सोच लें और फिर अपना मत बतलावें यदि किसी का भिन्न मत हो, तो वह भी स्पष्ट बता सकता है " - स्पष्टता करते हुए राजा ने फिर पूछा । सभाजनों ने पुनः अपना मत दुहराया । राजा ने फिर तीसरी बार पूछा ;
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- " तो आप सभी का एक ही मत है कि- " मेरे राज्य, नगर, गाँव या घर में उत्पन्न किसी भी रत्न का एकमात्र में ही स्वामी हूँ। दूसरा कोई भी उसका अधिकारी नहीं हो सकता ।"
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- "हां महाराज ! हम सभी एक मत हैं । इस निश्चय में किसी का भी मतभेद नहीं है" - सभा का अन्तिम उत्तर था ।
इस प्रकार सभा का मत प्राप्त कर राजा ने सभा के समक्ष कहा; -
' राजकुमारी मृगावती इस संसार में एक अद्वितीय 'स्त्री-रत्न' है । उसके समान सुन्दरी इस विश्व में दूसरी कोई भी नहीं है । आप सभी ने इस रत्न पर मेरा अधिकार माना है । इस सभा के निर्णय के अनुसार मृगावती के साथ में लग्न करूँगा ।"
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