Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ० महावीर स्वामीजी
नयसार का भव
जम्बूद्वीप के पश्चिम महाविदेह में 'महावप्र' नामक विजय है । उस विजय की 'जयंती नगरी' में शत्रुमर्दन राजा था। उसके राज्य में पृथ्वीप्रतिष्ठान नामक गाँव था।वहाँ 'नयसार' नामक स्वामी-भक्त एवं जनहितैषी गृहपति रहता था। वह स्वभाव से ही भद्र, पापभीरु और दुर्गुणों से वंचित था। सदाचार एवं गुण-ग्राहकता उसके स्वभाव में बसी हुई थी । एक दिन राजाज्ञा से वह भवन-निर्माण के योग्य बड़े-बड़े काष्ठ लेने के लिये, कई गाड़े ले कर महावन में गया । वृक्ष काटते हुए मध्यान्ह का समय हो गया । गरमी बढ़ गई और भूख भी बढ़ गई थी। साथ के लोग एक सघन वृक्ष के नीचे भोजन ले कर बैठे और नयसार को बुलाया। वह भी भूख-प्यास से पीड़ित हो रहा था । किन्तु अतिथि-सत्कार में उसकी रुचि थी। " यदि कोई अतिथि आवे, तो उसे भोजन कराने के बाद में भोजन करूँ"-इस विचार से वह इधर-उधर देखने लगा। उसने देखा कि कुछ मुनि इधर ही आ रहे हैं । वे श्रमण क्षुधा-पिपासा, गरमी थकान और प्रस्वेद से पीड़ित तथा सार्थ से बिछुड़े हुए थे। उन्हें देखते ही नयसार प्रसन्न हुआ। उसने मुनियों को नमस्कार किया और पूछा--
"महात्मन् ! इस भयानक महाअटवी में आप कैसे आये ? यहाँ तो शस्त्र-सज्ज योद्धा भी एकाकी नहीं आ सकता।"
"महानुभाव ! हम एक सार्थ के साथ विहार कर रहे थे। मार्ग के गाँव में हम
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