Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र-भा. ३
နေရာ
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နန်းရှေ့
"वत्स ! अपना सामन्त पुरुषसिंह विद्रोही बन गया है। वह उपद्रव मचा कर राज्य को छिन्न-भिन्न करना चाहता है। उसे अनुशासन में रखने के लिए युद्ध आवश्यक हो गया है।"
“पूज्यवर ! इसके लिये स्वयं आपका पधारना आवश्यक नहीं है। मैं स्वयं जा कर उसके विद्रोह को दबा दूंगा और उसकी उदंडता का दण्ड दे कर सीधा कर दूंगा। आप मुझे आज्ञा दीजिए।"
राजा यही चाहता था। विश्वभूति सेना ले कर चल दिया। उसकी पत्नियाँ उद्यान में से राज-भवन में आ गई । विश्वभूति की सेना उस सामंत की सीमा में पहुँची, तो वह स्वयं स्वागत के लिए आया और उसने कुमार का अति आदर-सत्कार किया। कुमार ने देखा कि यहाँ तो उपद्रव का चिन्ह भी नहीं है। सामन्त, पूर्ण रूप से आज्ञाकारी है । उसके विरुद्ध करने का कोई कारण ही नहीं । कदाचित् किसी ने असत्य समाचार दिये होंगे । वह सेना ले कर लौट आया और उसी पुष्पकरंडक उद्यान में गया । उद्यान में प्रवेश करते उसे पहरेदार ने रोका और कहा--"यहाँ राजकुमार विशाखनन्दी अपनी रानियों के साथ रहते हैं । अतएव आपका उद्यान में पधारना उचित नहीं होगा।"
अब विश्वभूति समझा। उसने सोचा कि 'मुझे उद्यान में से हटाने के लिए ही युद्ध की चाल चली गई।' उसे क्रोध आया। अपने उग्र क्रोध के वश हो कर निकट ही रहे हुए एक फलों से लदे हुए सुदृढ़ वृक्ष पर मुक्का मारा। मुष्ठि-प्रहार से उसके सभी फल टूट कर गिर पड़े और पृथ्वी पर ढेर लग गया। फलों के उस ढेर की ओर संकेत करते हुए विश्वभूति ने द्वारपाल से कहा;--
“यदि पूज्यवर्ग की आशातना का विचार मेरे मन में नहीं होता, तो मैं अभी तुम सब के मस्तक इन फलों के समान क्षण-मात्र में नीचे गिरा देता।"
“धिक्कार है इस भोग-लालसा को। इसी के कारण कूड़-कपट और ठगाई होती है। इसी के कारण पिता-पुत्र, भाई-भाई और अपने आत्मीय से छल-प्रपञ्च किये जाते हैं । मुझे पापों की खान ऐसे कामभोग को ही लात मार कर निकल जाना चाहिए"-- इस प्रकार निश्चय कर के विश्वभूति वहां से चला गया और संभूति नाम के मुनि के पास पहुँच कर साधु बन गया। जब ये समाचार महाराज विश्वनन्दी ने सुने, तो वे अपने समस्त परिवार और अन्तःपुर के साथ विश्वभूति के पास आये और कहने लगे;--
"वत्स ! तेने यह क्या कर लिया ? अरे, तू सदैव हमारी आज्ञा में चलने वाला रहा, फिर बिना हमको पूछे यह दुःसाहस क्यों किया?"
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