Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जिनेश्वर भगवान् आदिनाथजी के निर्वाण के बाद मरीचि साधुओं के साथ फिरने लगा और भव्यजनों को बोध दे कर दीक्षा के लिए साधुओं के पास ला कर दीक्षा दिलवाता । कालान्तर में मरीचि व्याधिग्रस्त हुआ । वह संयमी नहीं रहा था, इसलिये साधुओं ने उसकी सेवा नहीं की । दुःख से संतप्त मरीचि ने सोचा --
मरीचि ने नया पंथ चलाया
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मरीचि ने नया पंथ चलाया
"अहो ! ये साधु स्वार्थी, निर्दय और कठोर हृदय के हैं । ये अपने स्वार्थ में ही लगे रहते हैं । ये लोक व्यवहार का भी पालन नहीं करते । इन्हें धिक्कार है । मैं इनका परिचित हूँ । इन पर स्नेह श्रद्धा रखता हूँ और हम सब एक ही गुरु के शिष्य हैं । मैं इनके साथ बड़े विनीत भाव से व्यवहार करता हूँ । इन सब संबंधों का पालन करना तो दूर रहा, ये तो मेरे सामने भी नहीं देखते ।" इस प्रकार सोचते हुए उसके विचारों ने दूसरा मोड़ लिया--"अरे, मुझे ऐसे विचार नहीं करना चाहिये । ये शुद्धाचारी श्रमण हैं । भरे जैसे भ्रष्ट की परिचर्या ये कैसे कर सकते हैं ? अब मेरा प्रबन्ध मुझे ही करना पड़ेगा । व्याधि से मुक्त होने के बाद में भी अपना एक शिष्य बनाऊँ, जो मेरी सेवा करे ।"
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मरीचि व्याधि-मुक्त हुआ । उसे 'कपिल' नामक एक कुलपुत्र मिला । मरीचि ने कपिल को आर्हत् धर्म का उपदेश दिया । वह दीक्षा का इच्छुक था। उसने पूछा --
आहेत धर्म उत्तम है, तो आप उसका पालन क्यों नहीं करते ?"
मरीचि ने कहा--" मैं उस धर्म का पालन करने में समर्थ नहीं हूँ ।"
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'क्या आपके मत में धर्म नहीं है " -- कपिल ने पूछा ।
" जिनमार्ग में भी धर्म है और मेरे मार्ग में भी धर्म है " - - मरीचि ने स्वार्थवश
कहा ।
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कपिल मरीचिका शिष्य हो गया। इस प्रकार मिथ्या उपदेश से मरीचि ने कोटाकोटि नागरोपम प्रमाण संमार-भ्रमण रूप कर्म उपार्जन किया। मरीचि ने अनशन किया और पाप की आलोचना किये बिना ही आयु पूर्ण कर ब्रह्म देवलोक में दस सागरोपम की स्थिति वाला देव हुआ । उसके शिष्य कपिल ने भी आसूर्य आदि शिष्य किये और अपने आचार-विचार से परिचित किया। आयु पूर्ण कर के वह भी ब्रह्मदेवलोक में देव हुआ । ज्ञान से अपने शिष्यों को देख कर वह पृथ्वी पर आया और उन्हें 'सांख्य मत' बतलाया ।
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