Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र भाग ३
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अपना हो विनाश कर रहा है । तेरी बुद्धि इतनी कुटिल क्यों हो गई है ? इन विश्वपूज्य महात्मा का अहित कर के तू किस सुख की चाहना कर रहा है ? में इन महान् दयालु भगवान् का शिष्य हूँ । अब मैं तेरी अधमता सहन नहीं कर सकूंगा । मैं समझ गया । तु इन महात्मा से अपने पूर्वभव का वैर ले रहा है । अरे मूर्ख ! इन्होंने तो अनुकम्पा वश हो कर सर्प को ( मुझे ) बचाया था और तेरा अज्ञान दूर कर के सन्मार्ग पर लाने के लिए हितोपदेश दिया था । परन्तु तू कुपात्र था । तेरी कषायाग्नि प्रभकी और अब क्रूर बन कर तू उपद्रव कर रहा है । रे मेघमाली ! रोक अपनी क्रूरता को, अन्यथा अपनो अधमता का फल भोगने के लिये तैयार होजा ।"
धरणेन्द्र की गर्जना सुन कर मेघमाली ने नीचे देखा । नागेन्द्र को देखते हो उसे आश्चर्य के साथ भय हुआ । उसने देखा कि जिस संत को मैं अपना शत्रु समझ कर उपद्रव कर रहा हूँ, उस महात्मा की सेवा में धरणेन्द्र स्वयं उपस्थित है मेरी शक्ति ही कितनी जो मैं धरणेन्द्र की अवज्ञा करूँ ? और यह महात्मा कोई साधारण मनुष्य नहीं है । साधारण मनुष्य की सेवा में घरणेन्द्र नहीं आते । यह महात्मा किसी महाशक्ति का धारक अलोकिक विभूति है । मेरे द्वारा किये हुए भयानकतम उपद्रवों ने इस महापुरुष को किचित् भी विचलित नहीं किया । यह महात्मा तो अनन्त शक्ति का भण्डार लगता है । यदि कु हो कर यह मेरी ओर देख भी लेता, तो मेरा अस्तित्व ही नहीं रहता ।"
"हाँ, में अज्ञानी ही हूँ। मैंने महापाप किया है । में इस परमपूज्य महात्मा की शरण में जाऊँ और क्षमा माँगू । इसी में मेरा हित है।
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अपनी माया को समेट कर वह प्रभु के समीप आया और नमस्कार कर के बोला
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'भगवन् ! मैं पापी हूँ । मैने आपकी हितशिक्षा को नहीं समझा। मुझ पापात्मा पर आपकी अमृतमय वाणी का विपरीत परिणमन हुआ और में वैर लेने के लिये महाक्रूर बन गया । प्रभो ! आप तो पवित्रात्मा हैं । आप के हृदय में क्रोध का लेश भी नहीं है । हे क्षमा के सागर ! मुझ अधम को क्षमा कर दीजिये । वास्तव में में न तो मुँह दिखाने योग्य हूँ और न क्षमा का पात्र हूँ । परन्तु प्रभो ! में आपकी शरण आया हूँ । शरणागत पर कृपा तो आप को करनी ही होगी ।”
इस प्रकार बार-बार क्षमा माँगते हुए मेघमाली ने प्रभु को धरणेन्द्र से क्षमा याचना कर स्वस्थान चला गया । उपसर्ग मिटने पर को वन्दना कर के स्वस्थान चला गया ।
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वन्दना की और घरणेन्द्र भी प्रभु
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