Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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बन्धुदत्त का चरित्र
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अपना अपराध स्वीकार कर लिया और क्षमा याचना की । सारा माल सागरदत्त को मिल गया और सागरदत्त की उदारता ने उन्हें मुक्त भी करवा दिया । सागरदत्त की उदारता से आकर्षित हो कर नरेश ने उसे सम्मान दिया । अपने रत्नों को बेच कर उसने बहुत लाभ उठाया । उसके बाद वह दान-पुण्य करता हुआ वहीं रहने लगा । सुश्रावकों की संगति से वह भी श्रावक बना। उस समय भ० पार्श्वनाथजी पुण्ड्रवर्धन देश में विचर रहे थे । सागरदत्त भगवान् के समीप पहुँचा और प्रभु के उपदेश से प्रभावित हो कर निर्ग्रथ प्रव्रज्या स्वीकार कर ली ।
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बन्धुदत्त का चरित्र
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नागपुरी में सूरतेज नामक राजा राज करता था । वहाँ का धनपति सेठ राजा का प्रीति पात्र था । उसकी सुशीला पत्नी सुन्दरी की उदर से उत्पन्न " बन्धुदत्त नाम का पुत्र विनत एवं गुणवान् था। उस समय वत्स नाम के विजय की कौशाम्बी नगरी में मानभंग राजा का शासन था। वहाँ ' जिनदत्त' नाम का सम्पत्तिशाली सेठ रहता था । उसकी वसुमतीपत्नी से उत्पन्न 'प्रियदर्शना' नाम की पुत्री थी । उस कन्या के 'मृगांकलेखा' नामक सखी थी । वे जिनधर्म की रसिक थी। धर्म-साधना भी उनके जीवन का एक आवश्यक कृत्य बन गया था। एक बार एक महात्मा ने अपने साथ वाले सन्त से, प्रियदर्शना को उद्देश्य कर कहा - " इस युवती के उदर से एक पुत्र होगा, वह उत्तम आत्मा होगा ।" महात्मा की यह बात मृगांकलेखा ने सुनी ।
नागपुरी के ही वसुनन्द सेठ की पुत्री चन्द्रलेखा के साथ बन्धुदत्त के लग्न हुए । किन्तु लग्न का रात्रि में ही सर्पदंश से चन्द्रलेखा की मृत्यु हो गई । लोग बन्धुदत्त को 'दुर्भागी' और 'स्त्री- भक्षक' कहने लगे । लोकवाणी ने उसे सर्वत्र कलंकित कर दिया । उसका पुनः विवाह होना असंभव माना जाने लगा। उसके पिता ने बहुत सा धन दे कर पुत्र के लिये कन्या की याचना की, परन्तु सभी प्रयत्न व्यर्थ हुए। बन्धुदत्त निराश हो गया ओर अपना जावन ही व्यथ मानने लगा । चिन्ता ही चिन्ता में उसका शरीर दुर्बल होने लगा । पिता ने सोचा- यदि इसका मन दुःखित ही रहेगा, तो जीबित रहना कठिन हो जायगा । इसलिये इसे व्यापार में जोड़ कर यह दुःख भुलाना ही ठीक होगा । उसने जहाज में माल भरवा कर पुत्र को व्यापार के लिये सिंहल द्वीप भेजा । सिंहल द्वीप आ कर बन्धुदत्त ने वहाँ के नरेश को मूल्यवान् भेंट समर्पित की । नरेश ने प्रसन्न हो कर आयात-निर्यात कर से
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