Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र भाग ३
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सिखा कर कहा - " भद्र ! तू प्रत्येक पक्ष में एक दिन सभी प्रकार के सावद्य व्यापार का त्याग कर के एकांत स्थान में इस महामन्त्र का जाप करते हुए व्यतीत करना । साधना करते हुए यदि कोई तेरा द्रोह करे या अनिष्ट आचरण करे, तो भी तुझे शांत ही रहना चाहिये । यदि तू इस प्रकार साधना करता रहेगा, तो तेरे लिये स्वर्ग के महासुख भी सुलभ हो जायेंगे ।"
तेने महात्मा का उपदेश स्वीकार किया और तदनुसार पालन करने लगा । कालान्तर में एक दिन तू साधना कर रहा था कि तेरे निकट एक सिंह आया । उसे देख कर तेरी पत्नी भयभीत हो गई। तू धनुष उठा कर सिंह को मारने लगा, तब तेरी पत्नी ने तुझे प्रतिज्ञा का स्मरण कराया । तू सावधान हो कर साधना में लीन हो गया । तेरी पत्नी भी स्मरण में लीन हो गई । सिंह तुम दोनों को मार कर खा गया । तुम दोनों काल कर के सौधर्म देवलोक में देव हुए। वहां से च्यत्र कर अपरविदेह में चक्रपुरी के राजा कुरुमृगांक की बालचन्द्रा रानी की कुक्षि से तु पुत्रपने उत्पन्न हुआ । श्रीमती का जीव मृगांक राजा के साले सुभूषण राजा की कुरुमती रानी के गर्भ से पुत्रीपने उत्पन्न हुई । तुम्हारा नाम क्रमशः 'शबरमृगांक' और 'वसंतसेना' रखे । तुम दोनों के लग्न हुए। तेरे पिता तुझे राज्य दे कर तापस हो गए । तू राजा बना । भील के भव में पशुओं की हिंसा तथा स्नेही युगलों के कराये हुए वियोग का पाप तेरे उदय में आया ।
उसी प्रदेश में जयपुर का वर्धन राजा महापराक्रमी था । उसने तुझ से वसंतसेना की माँग की । तुम दोनों में घोर युद्ध हुआ । वर्धन तुझ से पराजित हो कर भाग गया। किंतु तेरे पाप कर्म का उदय था । तेरी शक्ति क्षीण देख कर तप्त नाम का दूसरा बलवान राजा तुझ पर चढ़ आया । इस दूसरे युद्ध में तेरी सेना का भी विनाश हुआ और तू भी मारा गया । रौद्रध्यान की तीव्रता से तू छठी नरक में उत्पन्न हुआ । तेरी रानी भी अग्नि में जल कर नरक में उत्पन्न हुई । नरक से निकल कर तू पुष्करवर द्वीप में निर्धन मनुष्य का पुत्र हुआ । वसंतसेना भी वैसे ही घर में पुत्री हुई । तुम दोनों पति-पत्नी हुए । दरिद्रता होते हुए भी तुम दोनों स्नेहपूर्वक रहने लगे। एक बार जैन साध्वियाँ तुम्हारे यहाँ आई । तुमने उन्हें भक्तिपूर्वक आहार पानी दिया । प्रवर्तिनी साध्वीजी के उपदेश से तुमने श्रावकधर्म अंगीकार किया । वहाँ से मर कर तुम दोनों ब्रह्मदेवलोक में देव हुए। वहां से च्यव कर यहां उत्पन्न हुए हो । पूर्व के भील के भव में तेने प्राणियों का बिनाश किया था, उसके फलस्वरूप इस भव में भी तुम्हें इतना दुःख भोगना पड़ा । अशुभ कर्म का विपाक बड़ा कठोर होता है ।"
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