Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर - चरित्र भाग ३
F 1 * ၈ း ချီး
बन्धुदत्त आत्मघात करने को तत्पर
बन्धुदत्त सम्पन्न एवं सुखमय स्थिति से पुनः दुःख की ऊँडी खाई में गिर पड़ा। प्रिया का वियोग उसे सर्वाधिक पीड़ित कर रहा था । उसे लग रहा था कि मेरी प्राणप्रिया मेरे वियोग में जीवित नहीं रह सकेगी। वह कोमलांगी डाकुओं के बन्धन में एक दिन भी नहीं रह सकेगी। जब वह नहीं रहे, तो मेरा जीवित रहना भी व्यर्थ है । इस प्रकार सोच कर वह आत्मघात करने के लिए तत्पर हुआ। वह फाँसी पर लटकने लिए एक बड़े वृक्ष के निकट आया । उस वृक्ष के पास एक सरोवर था । उस सरोवर के किनारे एक हंस एकाकी उदास खड़ा था । बन्धुदत्त को लगा कि यह हंस भी प्रिया के वियोग में दुःखी है । दन्धुदत्त, हंस के दुःख का विचार करता हुआ कुछ देर खड़ा रहा । इतने में कमल की ओट में छुपी हुई हंसिनी प्रकट हुई। हंस अत्यंत प्रसन्न हो कर हंसिनी से मिला । वियोग के बाद पुनर्मिलन की इस घटना को देख कर बन्धुदत्त ने विचार किया - " क्या मेरा यह सोचना व्यर्थ नहीं है कि मेरी प्रिया मर ही जायगी और कभी मिलना होगा ही नहीं ? जीवन शेष है, तो मरेगी कैसे ? और वियोग के बाद पुनः संयोग होना असंभव तो नहीं है । फिर मैं मरूँ क्यों ? अब मुझे अपना एक स्थान बना कर प्रिया की खोज करनी है । इस दशा मैं न तो अपने घर जा सकता हूँ और न ससुराल ही। अब विशालापुरी जाऊँ और मामाजी से धन ले कर, डाकू सरदार को दे कर, पत्नी को मुक्त करवाऊँ । उसके बाद अपने घर जाना ठीक होगा ।
वह विशाला नगरी की ओर चला। दूसरे दिन वह गिरिस्थल के निकट आया और यक्ष के मन्दिर में विश्राम किया। कुछ समय के बाद एक दूसरा पथिक वहाँ आया और उसी मन्दिर में ठहरा। वह पथिक विशाला से ही आ रहा था । अपने मामा धनदत्त सार्थवाह के विषय में पूछने पर पथिक ने कहा- " धनदत्त सेठ तो विदेश गये थे । पीछे से राजा ने उनके पुत्र पर कोप कर के सारा धन लूट लिया और परिवार को बन्दी बना लिया । जब धनदत्त सेठ घर आय, तो राजा को अपनी कमाई का लाया हुआ समस्त धन दे दिया और परिवार को छोड़ने की प्रार्थना की। राजा ने विशेष रूप से कोटि द्रव्य देने पर ही छोड़ने की इच्छा बतलाई । इस पर से धनदत्त से, अपने भानजे बन्धुदत्त के पास धन लेने गये हैं ।" पथिक की बात ने बन्धुदत्त की आशा चूर-चूर कर दी । वह हताश हो गया । उसने सोचा- अभी मैं यहीं रह कर मामा की प्रतीक्षा करूँ और उनके साथ अपने घर जा कर उन्हें धन दिलवा कर उनके कुटुम्ब को मुक्त करवाऊँ तत्पश्चात् दोनों मिल कर पत्नी को छुड़ाने का प्रयत्न करेंगे ।"
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