Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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दत्त का स्त्री-विम
और लग्न
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बाद भोजन तैयार करना ४ ईर्षा पूर्वक दान देना ( दूसरे दानो की ईर्षा करते हुए अथवा साधु पर ईर्षा भाव धरते हुए दान देना) ५ अपनी वस्तु को नहीं देने की बुद्धि से दूसरे की बतलाना |
इस प्रकार के दोषों से रहित व्रतों का पालन करने वाला श्रावक, आत्मा को शुद्ध करता हुआ क्रमशः भव से मुक्त हो जाता है ।
भगवान् का धर्मोपदेश सुन कर कई भव्यात्माओं ने निग्रंथ श्रमण प्रव्रज्या स्वीकार की और बहुत-से देशविरत उपासक बने । महाराजा अश्वसेनजी ने अपने लघु-पुत्र हस्तिसेन को राज्य का भार सौंप कर जिनेश्वर भगवान् पार्श्वनाथजी के शिष्य बने और महारानी वामादेवी और प्रभावती ने भी दोक्षा ग्रहण की। प्रभु के शुभदत्त आदि आठ गणधर + हुए भगवान् ने वहाँ से विहार कर दिया ।
सागरदत्त की स्त्री - विरक्ति और लग्न
ताम्रलिप्ति नगरी में सागरदत्त नामक वणिकपुत्र था । वह युवक बुद्धिमान और कलाविद था । उसने जातिस्मरण ज्ञान से अपना पूर्वभव जान लिया था । पूर्वभव के कटु अनुभव के कारण वह स्त्रीमात्र से घृणा करता था । सुन्दर एवं आकर्षक युवतियों को भी वह घृणा की दृष्टि से देखता था । वह पूर्वभव में ब्राह्मण का पुत्र था । उसकी पत्नी व्यभिचारिणी थी । उसने इसे भोजन में विष दे दिया और एकाकी छोड़ कर अन्य पुरुष के साथ चली गई थी। एक सेवा परायण ग्वालिन ने इस पर दया ला कर उपचार किया । वह स्वस्थ हो कर परिव्राजक हो गया । वहाँ से मर कर श्रेष्ठिपुत्र हुआ । पूर्वभव में पत्नी की शत्रुता के अनुभव वह समस्त स्त्री जाति को ही 'कूड़-कपट की खान, पापपूर्ण तथा क्रूरता से भरी हुई ' मानने लगा था और अविवाहित रहा था । पूर्वभव में जिस ग्वालिन ने इसकी सेवा की थी वह मर कर उसी नगरी में एक सेठ की पुत्री हुई । वह अत्यंत सुन्दर थी । सागरदत्त के कुटुम्बियों ने उस युवती को उपयुक्त मान कर सम्बन्ध जोड़ने का प्रयत्न किया, परन्तु सागरदत्त की विरक्ति में कमी नहीं हुई। युवती बुद्धिमती थी । उसने सोचा- 'यह युवक किसी स्त्री द्वारा छला हुआ है - इस जन्म में नहीं, तो पूर्वभव में । पूर्व का कटु अनुभव ही इसकी विरक्ति का कारण है ।' उसने उसे अनुरक्त करने के लिए पत्र लिख कर प्रेम प्रदर्शित किया । उत्तर में सागरदत्त ने लिखा-
+ ग्रन्थ में १० गणधर होने का उल्लेख है, परन्तु समवायांग सूत्र में आठ गणधर लिखे हैं ।
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