Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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धर्म देशना - श्रावक व्रत
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प्रभु वहाँ से विहार कर के वाराणसी के आश्रमपद उद्यान में पधारे और धातकी वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग कर ध्यान में लीन हो गये । दीक्षा दिन से तियासी रात्रि पूर्ण हो चुकी थी । चैत्र कृष्णा ४ विशाखा नक्षत्र में चन्द्रमा का योग था । घाती कर्म नष्ट होने का समय आ गया था । भगवान् ने धर्मध्यान से आगे बढ़ कर शुक्ल ध्यान में प्रवेश किया और वर्द्धमान परिणाम से घातीकर्मों को नष्ट कर के केवलज्ञान- केवलदर्शन प्रकट कर लिया। देव देवियों और इन्द्रों ने केवल महोत्सव किया ।
केवलज्ञान होने के बाद भगवान् ने अपनी प्रथम धर्म देशना दी ।
धर्म-देशना
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श्रावक व्रत
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अहो भव्य प्राणियों ! जरा, रोग और मृत्यु से भरे हुए इस संसार रूपी महान् भयानक वन में धर्म के सिवाय और कोई रक्षक सहायक नहीं है । एक धर्म ही ऐसा है जो जीव को दुःख से बचा कर सुखी करता है । इसलिए धर्म ही सेवन करने के योग्य है । यह धर्म दो प्रकार का है - 'सर्वविरति ' और ' देशविरति ' । अनगार श्रमणों का धर्म सर्वविरति रूप है - जो संयम आदि दस प्रकार का है और दूसरा - देशविरति रूप धर्म गृहस्थों का है । यह देश विरति रूप धर्म-पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत यों बारह प्रकार का है । यदि ये व्रत अतिचार (दोष) युक्त हों, तो यथार्थ फल नहीं देते । दोष रहित व्रत ही उत्तम फल प्रदान करते हैं । इनका स्वरूप समझो ; --
१ स्थूल हिंसा त्याग रूप प्रथम अणुव्रत- जीव दो प्रकार के हैं-स्थावर और त्रस । गृहस्थ जीवन में स्थावर जीवों की हिंसा का त्याग कर सकना कठिन है । इसलिये स्थावर की हिंसा का त्याग नहीं कर सके तो विवेक पूर्वक व्यर्थ हिंसा के पाप से बचे और त्रस जीवों की जानबूझ कर संकल्प पूर्वक निरपराधी हिंसा नहीं करे ओर आरम्भजा हिंसा में भी विवेक को नहीं भूले ।
इसके पाँच अतिचार इस प्रकार हैं । तीव्र क्रोध कर के किसी जीव को १ बाँधना,
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