Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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पावकुमार समरांगण में
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दूत की बात सुनते ही महाराजा अश्वसेन की भकुटी तन गई। वे गर्जना करते हुए बोले-“ उस दुष्ट यवन राज का इतना दुःसाहस ? पुरुषोत्तम ! मैं हूँ वहाँ तक प्रसेनजित नरेश को किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करनी चाहिये । मैं स्वयं उस दुष्ट यवन से कुशस्थल की रक्षा करूंगा।"
___ महाराजा के आदेश से रणभेरी बजी । सेना एकत्रित होने लगी। उस समय पार्श्वकुमार क्र डागृह में खेल रहे थे। उन्होंने रणघोष सुना और सैनिकों का आवागमन देखा, तो तत्काल राजसभा में आये और पिताश्री से कारण पूछा । पिता ने कुशनगर के राजदूत की ओर अंगुली निर्देश करते हुए कारण बताया। युवराज ने कहा-"पूज्य यह कार्य तो साधारण है । इस छोटे से अभियान पर आपको कष्ट उठाने की आवश्यकता नहीं है। मुझे आज्ञा दीजिये । मैं उस यवनराज को ठीक कर के कुशस्थल का संकट दूर कर दूंगा।"
"नहीं पुत्र ! तुम बालक हो । तुम्हारी अवस्था खेलने की है। अभी तुम रणांगण में जाने योग्य नहीं हुए। उस दुष्ट को दुःसाहस का सबक सिखाने में ही जाऊँगा"-पिता ने स्नेहपूर्वक कहा।
"तात ! आप मुझे आज्ञा दीजिये। मेरे लिये तो रणभूमि भी क्रीड़ास्थली होगी। आप निश्चित रहें । ऐसे छोटे अभियान तो मेरे लिये खेल ही होंगे"-पार्श्वकुमार ने आग्रहपूर्वक कहा।
पिता जानते थे कि कुमार लोकोत्तर महापुरुष है । इसके बल-पराक्रम का तो पार ही नहीं है । उन्होंने सहर्ष आज्ञा प्रदान की। सेना ने प्रयाण किया । पार्श्वकुमार ने राजदूत पुरुषोत्तम के साथ शुभमुहूर्त में गजारूढ़ हो कर समारोहपूर्वक प्रस्थान किया।
प्रथम स्वर्ग के स्वामी देवेन्द्र शक्र ने अवधिज्ञान से जाना कि भावी जिनेश्वर पार्श्वनाथ युद्धार्थ प्रयाण कर रहे हैं, तो अपने सारथि को दिव्य अस्त्रों और रथ के साथ
ना । सारथि ने आकाश से उतर कर पार्वकूमार को प्रणाम किया और देवेन्द्र की भेंट स्वीकार करने की प्रार्थना की । युवराज हाथी पर से उतर कर रथ में बैठे। रथ, भूमि से ऊपर आकाश में सेना के आगे चलने लगा । क्षण मात्र में लाखों योजन पहुँच जाने वाला वह दिव्य रथ, सेना का साथ बना रहे, इसलिये धीरे-धीरे चलने लगा। कुछ दिगों में कुशस्थल के उद्यान में पहुँच कर युवराज, देवनिर्मित सप्तखण्ड वाले भव्य भवन में ठहरे । इसके बाद कुमार ने अपना दूत यवनराज के पास भेज कर कहलाया---
" इस नगर के स्वामी प्रसेनजित नरेश ने तुम्हारे आक्रमण को हटाने के लिये, मेरे पिता महाबली महाराजाधिराज अश्वसेनजी की सहायता माँगी। महाराज के आदेश
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