Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर-चरित्र भाग ३ န်းနန်းရရန်
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"स्वामिन ! 'कुशस्थल' नामक नगर के महाराज नरवर्मा महाप्रतापी नरेश थे। न्यायनोति से अपनी प्रजा का पालन करते थे। जिनधर्म के प्रति उनका अनन्य अनुराग था। उन्होंने तो निग्रंथप्रवज्या ग्रहण कर ली। अब उनके प्रतापी पुत्र महाराज प्रसेनजित राज कर रहे हैं। मैं उन्हीं का सेवक हूँ। महाराज प्रसेनजितजी के प्रभावती' नाम की पुत्री है । वह रूप-लावण्य में देवांगना से भी अत्यधिक सुन्दर है । उसकी अनुपम सुन्दरता से आकर्षित हो कर अनेक राजाओं और राजकुमारों ने मेरे स्वामी के सम्मुख उसकी याचना की। परन्तु उन्हें कोई पसन्द नहीं आया। एक दिन राजकुमारी अपनी सखियों के साथ उपवन में विचरण कर रही थी कि एक लताकुंज में कुछ किन्नरियाँ बैठी बातें कर रही थी। उन्होंने कहा-“इस समय भरतक्षेत्र में महाराजा अश्वसेन के सुपुत्र युवराज पार्श्वनाथ रूप-यौवन और बल-पराक्रम में इतने उत्कृष्ट हैं कि जिनकी समानता में संसार का कोई पुरुष नहीं आ सकता । वह कुमारी धन्य होगी, जिसे पार्श्वनाथ की पत्नी बनने का सौभाग्य प्राप्त होगा।"
किन्नरियों की बात राजकुमारी प्रभावती ने सुनी । उसके मन में पार्श्वनाथ के प्रति अनुराग उत्पन्न हुआ। किन्नरियां तो चली गई, किन्तु वह पावकुमार के अनुराग में लीन हो कर वहीं बैठी रही । सखियों ने उसे सावधान किया और राज-भवन में ले आई। राजकुमारी तब से आपके सुपुत्र के ही ध्यान में रत रहने लगी । चिन्ता और निराशा में वह खान-पान भी भूल गई । महारानी और महाराजा को सखियों से कुमारी की चिन्ता का कारण ज्ञात हुआ। उन्होंने पुत्री की भावना का आदर किया और आपकी सेवामें मुझे भेजने की आज्ञा प्रदान की। इतने ही में वहाँ कलिंगादि देशों का अधिपति दुर्दान्त यवनराज का दूत आया और प्रभावती की मांग की। महाराज ने कहा-"प्रभावती ने वाराणसी के युवराज पार्श्वकुमार को मन-ही-मन वरण कर लिया है । इसलिए अब अन्य कुछ सोच भी नहीं सकते।" दूत लौट गया । कलिंाराज कोपायमान हुआ और कुशस्थल पर चढ़ाई कर दी। नगर को घेर लिया और सन्देश भेजा कि 'कुमारी प्रभावती को मुझे दो, या युद्ध करो।' नगर के सभी द्वार बन्द हैं । अचानक आक्रमण हुआ। इससे सेना आदि की ठोक व्यवस्था भी नहीं हो सकी। महाराज ने मुझे गुप्त-मार्ग से सेवा में भेजा है । मैं सागरदत्त श्रेष्ठि का पुत्र पुरुषोत्तम हूँ और महाराज का मित्र भी । महाराज ने सहायता की याचना की है और राजकुमारा भी युवराज के समर्पित हो रही है । इस विषम स्थिति से रक्षा आप ही कर सकते हैं।"
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