Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र भाग ३
पालते हुए उन्होंने तीर्थंकर नाम-कर्म निकाचित किया । कुरंगक भिल्ल नरक से निकल कर क्षीरगिरी के निकट सिंह हुआ | महात्मा सुवर्णबाहुजी विहार करते हुए क्षीरगिरि के वन में आये । सूर्य के सम्मुख खड़े रह कर आतापना ले रहे थे । उधर वह सिंह दो दिन का भूखा था, भक्ष्य खोजता हुआ मुनि के निकट आया । महात्मा को देखते ही उसका पूर्वभव का वैर उदय हुआ । उसने एक भयानक गर्जना की और छलांग लगा कर महात्मा पर कूद पड़ा । एक थाप मारी और मांस नोंचने लगा | महात्मा धीरतापूर्वक आलोचना कर के ध्यान में स्थिर हो गए । असह्य वेदना को शान्ति से सहन करते हुए मृत्यु पा कर वे प्राणत देवलाक के महाप्रभ विमान में, बीस सागरोपम की स्थिति वाले महद्धिक देव हुए। वह सिंह भी जीवनभर पापकर्म करता हुआ चौथे नरक में दस सागरोपम की स्थिति वाला नारक हुआ । वहाँ से पुनः तिर्यंच भव पा कर विविध प्रकार के दुःख भोगने लगा ।
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कमठ का जन्म
सिंह का जीव नरक से निकल कर नारक-तियंच गति में भटकता हुआ किसी छोट गाँव में एक गरीब ब्राह्मण के यहाँ पुत्र हुआ । जन्म के बाद ही उसके माता-पिता मर गए । ग्राम्यजनों ने उसका पालन किया। उसका नाम 'कमठ' था । उसका बालवय भी दुःख ही में व्यतीत हुआ और यौवन में भी वह लोगों द्वारा तिरस्कृत और ताड़ित होता हुआ दुःखमय जीवन व्यतीत करने लगा । उसके पाप का परिणाम शेष था, वह भुगत रहा था । उसकी पेटभराई भी बड़ी कठिनाई से हो रही थी । उसे विचार हुआ कि मेरे सामने ऐसे धनाढ्य परिवार भी हैं जो सुखपूर्वक जीवन जो रहे हैं। उन्हें उत्तम भोजन, वस्त्रालंकार और सुख की सभी सामग्री सहज ही प्राप्त हुई है और मुझे रूखा-सूखा टुकड़ा भी तिरस्कार-पूर्वक कठिनाई से मिलता । ये लोग अपने पुण्य का फल भोग रहे हैं । इन्होंने अपने पूर्वभव में तपस्या की होगी, उसी से ये यहाँ सुखी हैं । अब में भी तपस्या करूँ, तो भविष्य में मुझे भी सुख प्राप्त होगा । इस प्रकार विचार कर के वह तापस बन गया और कन्दमूलादि का भक्षण करता हुआ पञ्चाग्नि तप करने लगा ।
भगवान् पार्श्वनाथ का जन्म
इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में गंगा महानदी के निकट ' वाराणसी' नामक भव्य नगरी थी। वहां इक्ष्वाकु वंशीय महाराजा अश्वसेन का राज्य था । वे महाप्रतापी सौभाग्य
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